गुरुवार, 26 सितंबर 2013

महज 11 साल की उम्र में दुश्मनों के छुड़ा दिए थे छक्के

 राजस्थान वीरों की धरती है। यहां ऐसे शासक हुए जो अपनी राज्य की सीमा तक ही सीमित नहीं रहे। इन्होंने अपनी वीरता का परिचय कद से बढ़ कर दिया। बाहुबली तो थे ही, साथ ही अपनी विवेक और चतुराई से दुश्मनों को धूल चटाने में भी पीछे नहीं रहे। ऐसी ही एक मिसाल पृथ्वीराज चौहान के नाम की भी है। इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो पृथ्वीराज अनगिनत युद्ध में अपनी वीरता के परचम लहरा चुके हैं। इतिहासकारों के अनुसार महज 11 साल की उम्र में पृथ्वीराज चौहान ने विद्रोही नागार्जुन के छक्के छुड़ा दिए थे। उसे बुरी तरह से पराजित ही नहीं बल्कि मौत के घाट उतार दिया था। एक बार फिर दिल्ली और अजमेर रियासत पूरी तरह से महफूज हो चुकी थी। पृथ्वीराज ने अपनी वीरता और साहस का परिचय बचपन में दे दिया था। कहा जाता है कि पृथ्वीराज ने बाल अवस्था में ही शेर से लड़ाई कर उसका जबड़ा फाड़ डाला था। वैसे चौहान तलवारबाजी के शौकीन थे। शायद यही वजह थी कि इतनी कम उम्र में अपने दुश्मनों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।

दिल्ली से शुरू हुआ शासन का सफर: 1177 में पृथ्वीराज दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठे। हालात काफी नाजुक थे। भारत पर बाहरी आक्रमण का बोलवाला था। पृथ्वीराज के इतने कम उम्र में गद्दी पर बैठ जाने पर राजनीतिक खलबली मच गई थी। इस बीच विद्रोही नागार्जुन को पृथ्वीराज के गद्दी पर बैठना गवारा नहीं था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उसने काफी दिनों तक दिल्ली को बाहरी आक्रमण से महफूज रखा था। इसके बावजूद दिल्ली की बागडोर उसकी हाथों से निकल गई। विद्रोह का लावा फूट पड़ा। उसने पृथ्वीराज के खिलाफ आवाज उठा दी। स्थिति को देखते हुए पृथ्वीराज की मां (कर्पूर देवी) ने शासन का बागडोर अपने हाथों में ले ली। ताकि मंत्रियों और अधिकारियों पर नजर रखी जा सके । साथ ही सेना को सुढ्ढ़ किया जा सके।
ऐसा कहा जा सकता है कि पृथ्वीराज को अपनी मां की देखरेख में शासन चलाना पड़ा। लेकिन लगभग 1178 में पृथ्वीराज ने स्वयं सभी कामकाज अपने हाथ में लिया। इतिहासकारों के अनुसार मां के सान्निध्य में ही पृथ्वीराज ने विद्रोही नागार्जुन का दमन किया था। मां के साथ शासन का सफर चलता रहा और दिल्ली से लेकर अजमेर तक एक शक्तिशाली साम्राज्य कायम हो गया। भूभाग काफी विस्तृत हो चुका था। इसके बाद पृथ्वीराज ने अपनी राजधानी दिल्ली का नवनिर्माण किया। इससे पहले यहां पर तोमर नरेश ने एक गढ़ का निर्माण शुरू किया था। जिसे पृथ्वीराज ने विशाल रूप देकर पूरा किया। यह किला पिथौरागढ़ कहलाता है। इस किले का नाम पृथ्वीराज के नाम पर रखा गया है। पृथ्वीराज को "राय पिथौरा" भी कहा जाता है। आज भी दिल्ली के पुराने किले के नाम से जीर्णावस्था में विद्यमान है।

पृथ्वीराज के जन्म स्थल और जन्मदिन को लेकर मतभेद: पृथ्वीराज की जन्मतिथि और जन्मस्थल को लेकर कई विद्वानों में मतभेद बना हुआ है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पृथ्वीराज का जन्म गुजरात में हुआ था। तो दिल्ली और राजस्थान के इतिहासकारों का कहाना है कि पृथ्वीराज का जन्म राजस्थान के अजमेर में हुआ था। तिथि को लेकर भी काफी संशय है। 1100 में दिल्ली में महाराजा अनंगपाल का शासन था। उनकी इकलौती संतान पुत्री कर्पूरी देवी थी। कर्पूरी देवी का विवाह अजमेर के महाराजा सोमेश्वर के साथ हुआ था। अजमेर के राजा सोमेश्वर और रानी कर्पूरी देवी के यहां 1149 में एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जो आगे चलकर इतिहास में महान हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जबकि दूसरे इतिहासकार कुछ और बयां कर रहे हैं। उनके अनुसार पृथ्वीराज 11 वर्ष के थे, तब उनके पिता सोमेश्वर का विक्रम संवत 1234 (1177) में देहांत हो गया था। इस अनुसार 1223 विक्रम संवत 1166 में पृथ्वीराज का जन्म हुआ था। विश्व के अधिकांश विद्वानों ने भी इस तिथि को प्रामाणिक माना है।

गद्दी पर बैठते ही शुरू हुआ विद्रोह: दिल्ली सल्तनत पर हुकूमत करना सहज नहीं था। क्योंकि मुस्लिम और देसी रियासतों का आक्रमण दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा था। गद्दी पर बैठते ही सबसे पहले अपने निकट संबंधी नागार्जुन के विरोध का सामना करना पड़ा। नागार्जुन का दमन करने के बाद पृथ्वीराज ने 1191 में मुस्लिम शासक सुल्तान मोहम्मद शहाबुद्दीन गौरी को हराया। इसे इतिहास में तराइन के युद्ध से जाना जाता है। हालांकि गौरी ने दूसरी बार फिर से आक्रमण किया। इस युद्ध में पृथ्वीराज की हार हुई थी। ऐसा इतिहासकारों का मानना है। इस युद्ध के बाद पृथ्वीराज को गौरी अपने साथ ले गया था। इस बात की पुष्टि राजकवि चन्द्रबदाई ने की है। हालांकि इसकी पुष्टि भारत के इतिहासकार नहीं करते हैं। उनका मानना है कि तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज की मौत हो गई थी।

गुजरात के भीमदेव के साथ युद्ध: पृथ्वीराज ने गद्दी पर बैठते अपने साम्राज्य विस्तार और सैनिक को प्रशिक्षित करने में जुट गए। सबसे पहले साम्राज्य विस्तार का सफर राजस्थान से शुरू हुआ। अजमेर के आस-पास के रियासत पर कब्जा करने के  बाद पृथ्वीराज ने गुजरात की की ओर रुख किया। उस समय गुजरात में चालुक्य वंश का शासन था। वहां के महाराजा भीमदेव बघेला थे। हालांकि युद्ध की पहल चालुक्य वंश की ओर से हुई थी। महाराजा भीमदेव ने पृथ्वीराज के किशोर होने का फायदा उठाना चाह
गुजरात में उस समय चालुक्य वंश के महाराजा भीमदेव बघेला का राज था। उसने पृथ्वीराज के किशोर होने का फायदा उठाना चाहता था। यही विचार कर उसने नागौर पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। पृथ्वीराज किशोर अवश्य था परन्तु उसमें साहस-संयम और निति-निपुणता के भाव कूट-कूट कर भरे हुए थे। जब पृथ्वीराज को पता चला के चालुक्य राजा ने नागौर पर अपना अधिकार करना चाहते है तो उन्होंने भी अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने के लिए कहा। भीमदेव ने ही पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर को युद्ध में हरा कर मृत्यु के घाट उतर दिया था। नौगर के किले के बाहर भीमदेव के पुत्र जगदेव के साथ पृथ्वीराज का भीषण संग्राम हुआ जिसमे अंतत जगदेव की सेना ने पृथ्वीराज की सेना के सामने घुटने टेक दिए। फलस्वरूप जगदेव ने पृथ्वीराज से संधि कर ली और पृथ्वीराज ने उसे जीवन दान दे दिया और उसके साथ वीरतापूर्ण व्यवहार किया। जगदेव के साथ संधि करके उसको अकूत घोड़े, हठी और धन संपदा प्राप्त हुई। आस पास के सभी राज्यों में सभी पृथ्वीराज की वीरता, धीरता और रन कौशल का लोहा मानने लगे। यहीं से पृथ्वीराज चौहान का विजयी अभियान आगे की और बढऩे लगा।


विद्रोही नागार्जुन का अंत: जब महाराज अनंगपाल की मृत्यु हुई उस समय बालक पृथ्वीराज की आयु मात्र 11 वर्ष थी। अनंगपाल का एक निकट सम्बन्धित था विग्रह्राज। विग्रह्राज के पुत्र नागार्जुन को पृथ्वीराज का दिल्लिअधिपति बनाना बिलकुल अच्छा नहीं लगा। उसकी इच्छा अनंगपाल की मृत्यु के बाद स्वयं गद्दी पर बैठने की थी, परन्तु जब अनंगपाल ने अपने जीवित रहते ही पृथ्वीराज को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया तो उसके हृदय में विद्रोह की लहरे मचलने लगी। महाराज की मृत्यु होते ही उसके विद्रोह का लावा फुट पड़ा। उसने सोचा के पृथ्वीराज मात्र ग्यारह वर्ष का बालक है और युद्ध के नाम से ही घबरा जायेगा। नागार्जुन का विचार सत्य से एकदम विपरीत था। पृथ्वीराज बालक तो जरूर था पर उसके साथ उसकी माता कर्पूरी देवी का आशीर्वाद और प्रधानमंत्री एवं सेनाध्यक्ष कमासा का रण कौशल साथ था। विद्रोही नागार्जुन ने शीघ्र ही गुडपुरा (अजमेर) पर चढ़ाई कर दी। गुडपुरा (अजमेर) के सैनिकों ने जल्दी ही नागार्जुन के समक्ष अपने हथियार डाल दिए। अब नागार्जुन का साहस दोगुना हो गया। दिल्ली और अजमेर के विद्रोहियों पर शिकंजा कसने के बाद सेनापति कमासा ने गुडपुरा की और विशाल सेना लेकर प्रस्थान किया। नागार्जुन भी भयभीत हुए बिना अपनी सेना के साथ कमासा से युद्ध करने के लिए मैदान में आ डाटा। दोनों तरफ से सैनिक बड़ी वीरता से लड़े। अंतत: वही जयपुर। राजस्थान वीरों की धरती है। यहां ऐसे शासक हुए जो अपनी राज्य की सीमा तक ही सीमित नहीं रहे। इन्होंने अपनी वीरता का परिचय कद से बढ़ कर दिया। बाहुबली तो थे ही, साथ ही अपनी विवेक और चतुराई से दुश्मनों को धूल चटाने में भी पीछे नहीं रहे। ऐसी ही एक मिसाल पृथ्वीराज चौहान के नाम की भी है। इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो पृथ्वीराज अनगिनत युद्ध में अपनी वीरता के परचम लहरा चुके हैं। इतिहासकारों के अनुसार महज 11 साल की उम्र में पृथ्वीराज चौहान ने विद्रोही नागार्जुन के छक्के छुड़ा दिए थे। उसे बुरी तरह से पराजित ही नहीं बल्कि मौत के घाट उतार दिया था। एक बार फिर दिल्ली और अजमेर रियासत पूरी तरह से महफूज हो चुकी थी। पृथ्वीराज ने अपनी वीरता और साहस का परिचय बचपन में दे दिया था। कहा जाता है कि पृथ्वीराज ने बाल अवस्था में ही शेर से लड़ाई कर उसका जबड़ा फाड़ डाला था। वैसे चौहान तलवारबाजी के शौकीन थे। शायद यही वजह थी कि इतनी कम उम्र में अपने दुश्मनों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।

पृथ्वीराज ने 17 बार किया था गौरी को पराजित:1166 से 1192 तक दिल्ली और अजमेर की हुकूमत पृथ्वीराज चौहान के हाथों में थी। वे चौहान वंश के हिंदू क्षत्रिय राजा थे। जो उत्तरी भारत में एक क्षत्र राज करते थे। किंवदंतियों के अनुसार मोहम्मद
गोरी ने 18 बार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था। जिसमें 17 बार गोरी को पराजित होना पड़ा। हालांकि इतिहासकार युद्धों की संख्या के बारे में तो नहीं बताते लेकिन इतना मानते हैं कि गौरी और पृथ्वीराज में कम से कम दो भीषण युद्ध हुए थे। जिनमें प्रथम में पृथ्वीराज विजयी और दूसरे में पराजित हुआ था। वे दोनों युद्ध थानेश्वर के निकटवर्ती तराइन या तरावड़ी के मैदान में 1191 और 1192 में हुए थे।

पृथ्वीराज की मृत्यु पर इतिहासकारों में मतभेद: इतिहासकारों के अनुसार तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय हुई थी। हालांकि इस युद्ध में पृथ्वीराज के योद्धाओं ने मुसलमानी सेना पर भीषण प्रहार कर अपनी वीरता का परिचय दिया था। लेकिन फिर भी गोरी के सैनिकों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया। युद्ध में पराजित होने के बाद पृथ्वीराज की किस प्रकार मृत्यु हुई। इस विषय में इतिहासकारों के विभिन्न मत मिलते है। कुछ के मतानुसार वह पहिले बंदी बनाकर दिल्ली में रखा गया था और बाद में गोरी के सैनिकों द्वारा मार दिया गया था। कुछ का मत है कि उसे बंदी बनाकर गजनी ले जाया गया था और वहां पर उसकी मृत्यु हुई।

शब्दभेदी बाण से मार गिराया गौरी को 
 चंदबरदाई द्वारा लिखित "पृथ्वीराज रासो" में विस्तार से पृथ्वीराज चौहान के बारे में लिखा गया है। खासतौर पर उनके अंतिम समय के बारे में। जब गौरी उन्हें पकड़कर अपने साथ ले गया और गरम सलाखें दाग कर उनकी आंखे फोड़ दी। अंधे होने के बावजूद पृथ्वीराज एक वीर की मौत मरना चाहते थे। अपने मित्र और राजकवि चंदबरदाई के साथ उन्होंने शब्दभेदी बाण चलाने की पूरी कला पर महारत हासिल की। इसके साथ उन्होंने गौरी से तीरंदाजी कौशल प्रदर्शित करने की अनुमति मांगी। गौरी ने पृथ्वीराज को दरबार में बुलाया। जहां उन्हें कुछ निशानों पर तीर चलाने थे। लेकिन पृथ्वीराज की योजना कुछ और ही थी। वे उन निशानों के बहाने गौरी पर निशाना साधना चाहते थे।

चंदरबरदाई ने दोहे के माध्यम से उन्हें गौरी का स्थान समझाया। जो इस प्रकार है-
"चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण,
ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान।"
इसी शब्दभेदी बाण के द्वारा पृथ्वीराज ने आंकलन करके बाण चला दिया। जिसके फलस्वरूप गौरी का प्राणांत हो गया। चूंकि पृथ्वीराज और चंदरबरदाई दोनों गौरी के सैनिकों से घिरे हुए थे, दुश्मन के हाथों मरने से बेहतर दोनों मित्रों ने एक दूसरे को मारकर वीरगति प्राप्त कर ली।

रविवार, 30 जून 2013

आइए जानते हैं ताजमहल के बारे में कुछ रोचक किस्से !


प्यार एक ऐसा शब्द है जिसका बयां करना सहज नहीं है। वैसे तो प्यार में साथ जीने और मरने की कसमें खाने वाले बहुत लोगों के बारे में सुना होगा। लेकिन हमारे देश में ऐसे शासकों की भी कभी नहीं है जिन्होंने प्यार में मिसाल कायम की। अपनी मुमताज की याद में एक ऐसा महल बनवाया जो पूरे दुनिया में सातवां अजूबा है। हम बात कर रहे हैं शाहजहां की। जिसने अपनी बेगम के लिए न सिर्फ ताजमहल बनवाया बल्कि उसके मरने के बाद भी उसे सीने लगाकर सोता रहा। आज हम आपके लिए आए हैं एक ऐसी प्यार की दास्तां। रोमांचित करने वाली यह एक ऐसी हकीकत है। जिसे पढ़कर आप हैरान हो जाएंगे। प्यार का दूसरा जुदाई है। जंग और फिर मौत प्रेम की ऐसी सच्चाई जिसे चाहकर भी नकारा नहीं जा सकता है।

प्यार की निशानी ताजमहल, एक ऐसी ही दास्तां को बयां करता है जिसमें प्यार भी है, जुदाई भी है, जंग भी है और फिर मौत भी है। संगमरमर से बने आगरा के खूबसूरत ताजमहल के बारे में सभी अच्छी तरह परिचित हैं। यह क्यों बना, किसने बनाया और बनाने के बाद इसका निर्माण करवाने वाले का क्या हश्र हुआ, यह बात किसी से भी छिपी नहीं है। लेकिन आज हम आपको आगरा के इसी ताजमहल के बारे में जो सच्चाई बताने जा रहे हैं, उसे शायद बहुत कम ही लोग जानते होंगे। ताजमहल से जुड़ी यह हकीकत हैरान करने वाली भी है और थोड़ी परेशान भी करती है।

आगरा के जिस स्थान पर आज ताजमहल खड़ा है वह कभी जयपुर के महाराज जयसिंह की धरोहर हुआ करता था। महाराज जयसिंह को इस स्थान के बदले शाहजहां ने आगरा के बीचो बीच एक महल दे दिया था। ताजमहल का निर्माण करवाने से पहले इस स्थान के आसपास की तीन एकड़ जमीन को खोदा गया और इस नींव को कंकड़-पत्थरों से इस कद भर कर ऊंचा कर दिया गया ताकि यमुना नदी की नमी से इस इस इमारत का बचाव किया जा सके।

शाहजहां काला ताजमहल भी बनवाना चाहता था, लेकिन इससे पहले ही उसे उसके पुत्र औरंगजेब ने कैद कर लिया", यह कहना था उस पहले शख्स का जो ताजमहल घूमने आया था। यूरोपीय पर्यटक जीन बैप्टिस्ट टैवर्नियर पहला इंसान था जो ताजमहल घूमने आया था और उसी ने इस बात को पुख्ता किया था कि शाहजहां ताजमहल के पास एक काले रंग का ताजमहल भी बनवाना चाहता था।

अपनी चौदहवीं संतान को जन्म देते समय शाहजहां की सबसे चहेती बेगम मुमताज की मौत हो गई थी। शाहजहां अपनी बेगम से बेइंतहा मोहब्बत करता था और चाहता था कि मुमताज अपनी आंखों से ताजमहल को बनता देखे। लेकिन ऐसा ना हो सका इसीलिए जब तक ताजमहल का निर्माण पूरा नहीं हो गया तब तक एक यूनानी हकीम की मदद से शाहजहां ने मुमताज महल के शव को एक ममी की भांति संरक्षित रखा था। लेकिन इतिहासकार इस बात से इंकार करते हैं कि मुमताज महल के शव को ममी के रूप में ही दफनाया भी गया था।

ताजमहल के निर्माण में एशिया के अलग-अलग स्थानों से पत्थर लाकर प्रयोग किए गए। मुख्य पत्थर संगमरमर को राजस्थान से मंगवाया गया था, पंजाब से जैस्पर, तिब्बत से फिरोजा, अफगानिस्तान से लैपिज़ लजू़ली, चीन से हरिताश्म और क्रिस्टल, श्रीलंका से नीलम और अरब से इंद्रगोप पत्थर लाए गए थे। पत्थरों की आवाजाही को 1,000 हाथियों ने अंजाम दिया था।

ताजमहल में जो कब्र पर्यटकों के लिए खोली गई है वह मुमताज और शाहजहां की असली कब्र नहीं है।तहखाने में इन दोनों प्रेमियों की असली कब्रें मौजूद हैं, जिनकी नक्काशी अविस्मरणीय और अतुलनीय है। तहखाने में मुमताज महल की कब्र पर अल्लाह के 99 नाम खुदे हुए हैं। जबकि शाहजहां की कब्र पर "उसने हिजरी के 1076 साल में रज्जब के महीने की छब्बीसवीं तिथि को इस संसार से नित्यता के प्रांगण की यात्रा की" लिखा हुआ है।

मंगलवार, 25 जून 2013

लैला की दर्द भरी दास्तां, राजस्थान की सीमा पर मजनूं ने ली थीं आखिरी सांसें

प्यार, इश्क, प्रेम और मोहब्बत ये ऐसे शब्द हैं जो जुबान पर आते ही मन रोमांचित हो जाता है। लेकिन इनके रास्ते सहज नहीं हैं। हर पग पर कांटे और आग के शोले हैं। या यूं कहें कि ये आग का दरिया और जिसे डूब कर पार करना है। दुनिया में ऐसी कई प्रेम कहानियां हैं, जिन्हें आपने भले ही न देखा हो, लेकिन उनकी दर्द भरी दास्तां जरूर सुनी होगी। ये ऐसे प्रेमी युगल थे, जिन्होंने अपनी मोहब्बत के लिए सब कुछ न्यौछावर कर दिया। आज हम आपको एक ऐसी प्रेमी युगल के बारे बताने जा रहा है। जिसकी दास्तान आज भी सुनी सुनाई जाती है। यह प्रेम कहानी आज भी अमर है। इस प्रेमी युगल को भारत का रोमियो जूलियट कहा जाता है। जी हां ये जोड़ा लैला-मजनूं है।

राजस्थान की सीमा पर मजनूं ने ली आखिरी सांस: राजस्थान के गंगानगर जिले में अनूपगढ़ से 11 किमी की दूरी पर लैला और मजनूं का मजार है। कहा जाता है कि एक दूसरे के प्यार में डूबे लैला मजनूं ने प्रेम में विफल होने के बाद अपनी जा दे दी थी। जमाने के विरोध के बावजूद दोनों की मजारें बिल्कुल पास हैं। भारत-पाक सीमा के नजदीक स्थित यह मजार मजहब से परे है। भारत पाक में मतभेद होने पर भी हिन्दू और मुस्लिम दोनों यहां आकर सिर नवाजते हैं। कहने का अभिप्राय है कि प्रेम सरहदें नहीं मानता। वह सीमाओं से सदा सर्वदा मुक्त है। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि अपने प्रेम को बचाने समाज से भागे इस प्रेमी जोड़े ने राजस्थान के इसी बिजनौर गांव में शरण ली और यहीं अंतिम सांस भी ली। इस स्थल को मुस्लिम लैला मजनूं की मजार कहते हैं तो हिंदू लैला मजनूं की समाधि।

प्यार दर-दर भटकता रहा मजनूं: किसी कल्पना से कम नहीं है लैला मजनूं की प्रेम कहानी। लेकिन यह सच है। सदियों से लैला मजनूं की दास्तान सुनाई जा रही है। यह कहानी उस दौर की है जब प्यार को गुनाह माना जाता था। प्रेम करना किसी सामाजिक बुराई से कम नहीं था। लैला मजनूं का प्रेम लंबे समय तक चला और आखिर इसका अंत काफी दुखदायी हुआ। दोनों जानते थे कि वे कभी एक साथ नहीं रह पाएंगे। एक दूसरे के लिए प्रेम की इस असीम भावना के साथ दोनों सदा के लिए इस दुनिया से दूर चले गए। उनके प्रेम की पराकाष्ठा यह थी कि लोगों के उन दोनों के नाम के बीच में "और" लगाना भी मुनासिब नहीं समझा और दोनों हमेशा "लैला-मजनूं" के रूप में ही पुकारे गए। बाद में प्यार करने वालों के लिए यह बदनसीब प्रेमी युगल एक आदर्श बन गया। प्रेम में गिरफ्तार हर लड़की को लैला कहा जाने लगा और प्यार में दर-दर भटकने वाले आशिक को मजनूं की संज्ञा दी जाने लगी।
आजादी से पूर्व बन गया था यहां लैला मजनूं का मजार: देश की आजादी और भारत-पाक विभाजन से पूर्व यहां लैला मजनूं का मजार बन गया था। विभाजन के बाद भारत-पाकिस्तान दो देश बन गए। लेकिन इस मजार पर माथा टेकने दोनों आते रहे। दुश्मनी अपनी जगह थी और मोहब्बत अपनी जगह। राजस्थान की सीमाएं पाकिस्तान से लगती हैं और समय समय पर सीमा पर तनाव की खबरें भी आती हैं। लेकिन दुश्मनी की इसी सीमा पर राजस्थान में एक स्थान ऐसा भी है जहां नफरत के कोई मायने नहीं हैं। जहां सीमाएं कोई अहमियत नहीं रखती है। यह स्थान राजस्थान के गंगानगर जिले की अनूपगढ़ तहसील के करीब है, जहां लैला मजनूं की मजारें प्रेम का संदेश हवाओं में महकाती हैं। अनूपगढ के बिजनौर में स्थित ये मजारें पाकिस्तान की सीमा से महज 2 किमी अंदर भारत में हैं।

सिंध के रहने वाले थे लैला मजनूं: बिजनौर के स्थानीय ग्रामीणों के अनुसार लैला मजनूं मूल रूप से सिंध प्रांत के रहने वाले थे। एक दूसरे से उनका प्रेम इस हद तक बढ़ गया कि वे एक साथ जीवन जीने के लिए अपने-अपने घर से भाग निकले और भारत के बहुत सारे इलाकों में छुपते फिरें। आखिर वे दोनोंं राजस्थान आ गए। जहां उन दोनों की मृत्यु हो गई। लैला मजनूं की मौत के बारे में ग्रामीणों में एक राय नहीं है। कुछ लोगों का मानना है कि लैला के भाई को जब दोनों के इश्क का पता चला तो उसे बर्दाश्त नहीं हुआ और आखिर उसने निर्ममता से मजनूं की हत्या कर दी। लैला को जब इस बात का पता चला तो वह मजनूं के शव के पास पहुंची और वहीं उसने खुदकुशी करके अपनी जान दे दी। कुछ लोगों का मत है कि घर से भाग कर दर दर भटकने के बाद वे यहां तक पहुंचे और प्यास से उन दोनों की मौत हो गई।

कुछ लोग यह भी मानते हैं कि अपने परिवार वालों और समाज से दुखी होकर उन्होंने एक साथ जान दे देने का फैसला कर लिया था और आत्महत्या कर ली। दोनों के प्रेम की पराकाष्ठा की कहानियां यहीं खत्म नहीं होती है। ग्रामीणों में एक अन्य कहानी भी प्रचलित है जिसके अनुसार लैला के धनी माता पिता ने जबरदस्ती उसकी शादी एक समृद्ध व्यक्ति से कर दी थी। लैला के पति को जब मजनूं और लैला के प्रेम का पता चला तो वह आग बबूला हो उठा और उसने लैला के सीने में एक खंजर उतार दिया। मजनूं को जब इस वाकये का पता चला तो वह लैला तक पहुंच गया। जब तक वह लैला के दर पर पहुंचा लैला की मौत हो चुकी थी। लैला को बेजान देखकर मजनूं ने वहीं आत्महत्या कर अपने आपको खत्म कर लिया।

अनगिनत कहानी हैं इस प्रेमी युगल की: लैला मजनूं के प्रेम की अनगिनत दास्ताने बिजनौर और पूरी दुनिया में फैली हुई हैं। कई भाषाओं और कई देशों में लैला मजनूं पर फिल्में और संगीत भी रचा गया है जो बहुत सफल हुआ है। शायद ही असल कहानी का किसी को पता हो लेकिन यह सच है कि लैला मजनूं ने एक दूसरे से अपार प्रेम किया और जुदाई ने दोनों की जान ले ली। प्रेम की इस भावना को नमन करते हुए बिजनौर की इस मजार पर हर साल मेला भी आयोजित किया जाता है। हर साल 15 जून को लैला मजनूं की मजार पर भरने वाले इस मेले में बड़ी संख्या में भारतीय और पाकिस्तानी प्रेमी युगल आते हैं, प्यार की कसमें खाते हैं और हमेशा हमेशा साथ रहने की मन्नतें मांगते हैं।
चमत्कारी है यह मजार: इस मजार को लेकर यहां कई ऐसी मान्यता हैं। स्थानीय लोगों में यह एक पवित्र स्थल है। हिन्दू इसे समाधि स्थल और मुस्लिम मजार मानकर अपना सिर नवाजते आए हैं। ये दोनों समुदाय लैला मजनूं की मजारों को एक जोड़कर देखते हैं और उनके प्रेम को नमन करते हैं। पहले इस मजारों के ऊपर एक छतरी थी। लोगों का कहना है इन मजारों पर उन्होंने कई चमत्कार होते देखे हैं। जो लोग यहां अपना दुख दर्द लेकर आते हैं उनके जीवन में कई अच्छी घटनाएं घटती हैं, उनकी मन्नतें पूरी होती हैं। इसी चमत्कार ने हजारों लाखों लोगों में इन मजारों के प्रति असीम श्रद्धा भर दी है और वे हर साल यहां नियमित रूप से आने लगे हैं। वर्तमान में यहां दोनो मजारें एक दूसरे से सटी हुई दिखाई देती हैं लेकिन ऊपर छतरी ढह गई है।

शनिवार, 16 मार्च 2013

कभी थे चंबल के डकैत, स्वतंत्रता संग्राम में छुड़ा दिए अंग्रेजों के छक्के!

आजादी की पहली बिगुल 1857 में बजी। सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरोध में आवाज उठाई थी। इसे सिपाही विद्रोह या फिर भारतीय विद्रोह भी कहते हैं। यह विद्रोह दो सालों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। वैसे इस विद्रोह की शुरुआत छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों और आगजनी से हुआ था। लेकिन कुछ ही महीनों में इसने एक बड़ा रूप ले लिया। राजस्थान से लेकर उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश तक फैला चंबल का बीहड़ नामी डकैतों के लिए कुख्यात है। लेकिन आजादी के जंग में इस बीहड़ में रहने वाले डकैतों ने अहम भूमिका निभाई थी। ऐसे खूनी जंग की दास्तां। जिन्होंने अपना जीवन ही नहीं बल्कि सबकुछ न्यौछावर कर दिया इस भारत मां के लिए। आइए उनकी इस शहादत में हमलोग भी उन्हें सलाम करें।

डकैतों को बागी कहलाना पसंद: अब डकैतों को बागी कहलाना पसंद है। चंबल के बीहड़ों में आजादी की जंग 1909 से शुरू हुई थी। इससे पहले शौर्य, पराक्रम और स्वाभिमान का प्रतीक मानी जाने वाली बीहड़ की वादियां चंबल के पानी की तरह साफ सुथरी और शांत हुआ करती थी। चंबल में रहने वाले लोगों ने आजादी की लड़ाई लड़ाई में क्रांतिकारियों का साथ दिया। उन्होंने क्रांतिकारियों को छिपने का ठिकाना भी बनाया। बीहड़ों में रहने वाले डकैत कहे जाते हैं लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें बागी कहा। अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन में चंबल के किनारे बसी हथकान रियासत के हथकान थाने में सन 1909 में चर्चित डकैत पंचम सिंह पामर और मुस्कुंड के सहयोग से क्रांतिकारी पंडि़त गेंदालाल दीक्षित ने थाने पर हमला कर 21 पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया था।

कौन थे चंबल में रहने वाले: राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में बहने वाली चंबल के किनारे 450 वर्ग किमी फैले इन बीहड़ों में डकैत आज से नहीं आजादी से पहले भी हुआ करते थे। उन्हें पिंडारी कहा जाता था। ये मुगलकालीन में जमींदारों के वफादार सिपाही हुआ करते थे। जमींदार इनका इस्तेमाल किसी विवाद को निबटाने के लिए किया करते थे। मुगलकाल की समाप्ति के बाद अंग्रेजी शासन में चंबल के किनारे रहने वाले इन्हीं पिंडारियों ने वहीं डकैती डालना शुरू कर दिया और बचने के लिए चंबल की वादियों का रास्ता अपनाया। आजादी की इस जंग में हजारों घर बर्बाद हो गए। अंग्रेजों ने उनकी घरों में आग लगा दी। लेकिन इन डकैतों ने आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधे से मिलाकर क्रांतिकारियों ने साथ दिया।

सबसे पहले नसीराबाद से शुरू हुई विद्रोह:1857 के समय राजस्थान के कई राजपूत ब्रिटिश सरकार के खिलाफ थे। ये ब्रितानियों के शासन से संतुष्ट नहीं थे। जिससे इनके मन में सरकार के खिलाफ क्रांति की बीज उत्पन्न होने लगे। इन लोगों के साथ आम जनता भी शामिल हो गई। राजस्थान के कई इलाकों में इस विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। यहां से विद्रोह शुरू होने के पीछे मुख्य कारण यह था कि ब्रिटिश सरकार ने अजमेर की 15वीं बंगाल इंफेंट्री को नसीराबाद भेज दिया था। क्योंकि सरकार को इस पर विश्वास नहीं था। सरकार के इस निर्णय से सभी सैनिक नाराज हो गए और उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ क्रांति का आगाज कर दिया। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश सरकार ने बम्बई के सैनिकों को नसीराबाद में बुलवाया और पूरी सेना की जांच पड़ताल करने को कहा।

ब्रिटिश सरकार ने नसीराबाद में कई तोपें तैयार करवाई। इससे भी नसीराबाद के सैनिक नाराज हो गए और उन्होंने विद्रोह कर दिया। सेना ने कई ब्रितानियों को मौत के घाट उतार दिया साथ ही साथ उनकी सम्पत्ति को भी नष्ट कर दिया। इन सैनिकों के साथ अन्य लोग भी शामिल हो गए। नसीराबाद की घटना की खबर मिलते ही 3 जून 1857 को नीमच के विद्रोहियों ने कई ब्रितानियों को मौत के घाट उतार दिया। इसके फलस्वरूप ब्रितानियों ने भी बदला लेने की योजना बनाई। उन्होंने 7 जून को नीमच पर अपना अधिकार कर लिया। बाद में विद्रोही राजस्थान के दूसरे इलाकों की तरफ बढऩे लगे।

राजा के शासन से थे असंतुष्ट: जोधपुर के कुछ लोग राजा तख्त सिंह के शासन से असंतुष्ट थे। जिसके कारण एक दिन यहां के सैनिकों ने इनके खिलाफ विद्रोह कर दिया। उनके साथ आउवा के ब्रिटिश विरोधी कुशाल सिंह भी थे। कुशाल सिंह का सामना करने के लिए लेफ्टिनेंट हीथकोट के साथ जोधपुर की सेना आई थी। लेकिन कुशाल सिंह ने इन को परास्त कर दिया। बाद में ब्रितानी सेना ने आउवा के किले पर आक्रमण किया लेकिन उनको भी हार का मुंह देखना पड़ा। हालांकि ब्रिगेडियर होम्स उस पराजय का बदला लेना चाहता था। इसलिए उसने आउवा पर आक्रमण किया। जिससे कुशाल सिंह ने किले को छोड़ दिया और सलूम्बर चले गए। कुछ दिनों बाद ब्रितानियों ने आउवा पर अधिकार कर लिया और वहा आतंक फैलाया।

अंग्रेज क्रांतिकारियों से ज्यादा बागियों से थे परेशान: अंग्रेजों के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह थी की इनकी पहचान करना सहज नहीं था। क्योंकि इनका ठिकाना एक जगह नहीं था। ऐसे में अंग्रेज इन्हें नहीं पकड़ पाते थे। और ये अपने काम को अंजाम देने के बाद बड़ी सहजता पूर्वक निकल जाते थे। जिससे अंग्रेजी सिपाहियों को हर बार नाकामी ही मिलती थी। ऐसा कहा जा सकता है कि ये आंधी की तरह आते थे और तूफान की तरह निकल जाते थे।

मेवाड़ के सामंत ब्रितानियों व महाराणा से थे नाराज: मेवाड़ के सामंत ब्रितानियों व महाराणा से नाराज थे। इन सामंतों में आपसी फूट भी थी। महाराणा ने मेवाड़ के सामंतों को ब्रितानियों की सहायता करने की आज्ञा दी। इसी समय सलूम्बर के रावत केसरी सिंह ने उदयपुर के महाराणा को चेतावनी दी कि यदि आठ दिन में उनके परंपरागत अधिकार को स्वीकार न किया गया तो वह उनके प्रतिद्वंदी को मेवाड़ का शासक बना देंगे। सलूम्बर के रावत केसरी सिंह ने आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह को अपने यहां  यहां  शरण दी। इसी समय तात्या टोपे ने राजपूताने की ओर कूच किया। 1859 में नरवर के मान सिंह ने उसके साथ धोखा किया और उसे गिरफ्तार कर लिया। यद्यपि सामंतों ने प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार का विद्रोह नहीं किया परन्तु विद्रोहियों को शरण देकर इस क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

विद्रोही से मिले हैं कोटा महाराजा: ब्रिटिश अधिकारी मेजर बर्टन ने कोटा के महाराजा को बताया यहां के दो चार ब्रिटिश विरोधी अधिकारियों को ब्रिटिश सरकार को सौंप देना चाहिए। लेकिन महाराजा ने इस काम में असमर्थता जताई तो ब्रितानियों ने महाराजा पर आरोप लगाया कि वह विद्रोहियों से मिले हुए हैं। इस बात की खबर मिलते ही सैनिकों ने मेजर बर्टन को मार डाला। विद्रोहियों ने राजा के महल को घेर लिया, फिर राजा ने करौली के शासक से सैनिक सहायता मांगी। करौली के शासक ने सहयोग किया और विद्रोहियों को महल के पीछे खदेड़ा। इसी समय जनरल एचजी राबर्टसन अपनी सेना के साथ चंबल नदी के किनारे पहुंचा। उसे देखकर विद्रोही कोटा से भाग गए।

राज्य के अन्य क्षेत्रों में विद्रोह: इस विद्रोह में अलवर के कई नेताओं ने हिस्सा लिया। जयपुर में उस्मान खां और सादुल्ला खां ने विद्रोह कर दिया। टोंक में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया ओर नीमच के विद्रोहियों को टोंक आने का निमंत्रण दिया। इन्होंने टोंक के नवाब का घेरा डालकर उनसे बकाया वेतन वसूल किया। इसी तरह बीकानेर के शासक ने नाना साहब को सहायता का आश्वासन दिया था। और तात्या टोपे की सहायता के लिये दस हजार घुड़सवार सैनिक भेजे। यद्यपि राजस्थान के अधिकांश शासक पूरे विद्रोह काल में ब्रितानियों के प्रति वफादार रहे, फिर भी विद्रोहियों के दबाव के कारण उन्हें यत्र-तत्र विद्रोहियों को समर्थन प्रदान करना पड़ा।

मंगलवार, 5 मार्च 2013

हड़प्पा सभ्यता का विनाश किसी रहस्य से कम नहीं!

राजस्थान का इतिहास किसी रहस्य से कम नहीं है। यहां कि सभ्यता और संस्कृति आज भी शोध का विषय बना हुआ है। हड़प्पा विश्व की पहली विकसित सभ्यता है। इस सभ्यता में ही नगर की नींव रखी गई थी। इसलिए इसे नगरीकरण सभ्यता भी कहते हैं। जिसका उल्लेख कई विद्वान और इतिहासकारों ने किया है।

इतिहासकारों का मानना है कि पहली बार कांस्य का प्रयोग भी इसी सभ्यता में हुआ था। इसलिए इसे कांस्य सभ्यता भी कहा जाता है। यह सभ्यता 2500 ईसा पूर्व से 1800 ईसा पूर्व तक मानी जाती है। यहां के मकानों और पुरानी ईंटों से यह पता चलता की यह सभ्यता कितनी पुरानी है। हालांकि इसके विनाश के कारणों पर विद्वान के एकमत नहीं है।

नदी घाटी सभ्यताओं में सबसे प्रमुख सभ्यता थी यहां की: सिंधु घाटी सभ्यता (3300-1700 ईसा पूर्व) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में एक प्रमुख सभ्यता थी। इस सभ्यता का विकास सिंधु और सरस्वती नदी के किनारे हुआ। इसके प्रमुख केंद्र मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इसके प्रमुख केन्द्र थें।  ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी। ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं। चाल्र्स मैसेन ने पहली बार इस पुरानी सभ्यता को खोजा। कनिंघम ने 1872 में इस सभ्यता के बारे में सर्वेक्षण किया। फ्लीट ने इस पुरानी सभ्यता के बारे में एक लेख लिखा। 1921 में दयाराम साहनी ने हड़घ्पा का उत्खनन किया। इस प्रकार इस सभ्यता का नाम हड़प्पा सभ्यता रखा गया। यह सभ्यता सिन्धु नदी घाटी में फैली हुई थी। इसलिए इसका नाम सिन्धु घाटी सभ्यता रखा गया। आज तक सिन्धु घाटी सभ्यता के 1400 केन्द्रों को खोजा जा चुका है। जिसमें से 925 केन्द्र भारत में है। 80 प्रतिशत स्थल सरस्वती नदी और उसकी सहायक नदियों के आस-पास है। अभी तक कुल खोजों में से 3 प्रतिशत स्थलों का ही उत्खनन हो पाया है।

क्यों रखा गया इस सभ्यता का नाम हड़प्पा: इतिहासकारों के अनुसार सिंधु घाटी सभ्यता का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक था। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से इस सभ्यता के प्रमाण मिले हैं। विद्वानों ने इसे सिन्धु घाटी की सभ्यता का नाम दिया। क्योंकि यह क्षेत्र सिंधु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में आते हैं। लेकिन बाद में रोपड़, लोथल, कालीबंगा, वनमाली, रंगापुर आदि क्षेत्रों में भी इस सभ्यता के अवशेष मिले। जो कि सिंधु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र से बाहर थे। इसलिए कई इतिहासकारों ने इस सभ्यता का प्रमुख केन्द्र हड़प्पा को माना। यहीं वजह है कि इस सभ्यता को "हड़प्पा सभ्यता" नाम देना अधिक उचित मानते हैं।

कैसी विनाश हुआ यह सभ्यता: सिंधु घाटी सभ्यता के अवसान के पीछे कई तर्क दिए जाते हैं। विनाश के बारे में विश्व के कई विद्वान और इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं। बर्बर आक्रमण, जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिक असंतुलन, बाढ़, भूंकप और महामारी, आर्थिक जैसे कारण माने जाते हैं। ऐसा लगता है कि इस सभ्यता के पतन का कोई एक कारण नहीं था बल्कि विभिन्न कारणों के मेल से ऐसा हुआ। जो अलग-अलग समय में या एक साथ होने कि सम्भावना है। मोहनजोदड़ो में नग‍र और जल निकास कि व्यवस्थ से महामरी कि सम्भावन कम लगती है। भीषण आग के भी प्रमाण मिले हैं। इससे साबित होता है कि यहां अग्निकांड हुआ था। मोहनजोदड़ो के एक कमरे से 14 नर कंकाल मिले है। जो आगजनी, महामारी के संकेत हैं।
इस सभ्यता की सबसे बड़ी पहचान क्या बात थी: इस सभ्यता की सबसे विशेष बात थी यहां की विकसित नगर निर्माण योजना। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो ऐसे दो नगर थे, जहां शासक वर्ग के अपने-अपने दुर्ग थे। दुर्ग के बारह एक-एक उससे निम्न स्तर का शहर था। यहां के मकान ईंटों से बने थे। जहां सामान्य परिवार रहते थे। इन नगर भवनों के बारे में विशेष बात ये भी थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे। यानि सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खंडों में विभक्त हो जाता था। ये बात सभी सिन्धु बस्तियों पर लागू होती थीं चाहे वे छोटी हों या बड़ी। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के भवन बड़े होते थे। वहां के स्मारक इस बात के प्रमाण हैं कि वहां के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल थे। ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारत देखकर सामान्य लोगों को भी यह लगेगा कि ये शासक कितने प्रतापी और प्रतिष्ठावान थे।

 ईंटों का इस्तेमाल भी दूसरे सभ्यता से भिन्न: यहां के मकानों में ईंट का इस्तेमाल भी विशेष था। क्योंकि इसी समय के मिस्त्र के भवनों में धूप में सूखी ईंट का ही प्रयोग हुआ था। समकालीन मेसोपेटामिया में भी पक्की ईंटों का प्रयोग मिलता है। लेकिन इतने बड़े पैमाने पर नहीं, जितना सिंधु घाटी सभ्यता में थी। मोहनजोदड़ो की जल निकास प्रणाली अद्भुत थी। लगभग हर नगर के हर छोटे या बड़े मकान में प्रांगण और स्नानागार होता था। कालीबंगां के अनेक घरों में अपने-अपने कुएं थे।घरों का पानी बहकर सड़कों तक आता जहां इनके नीचे मोरियां (नालियां) बनी थीं।अक्सर ये मोरियां ईंटों और पत्थर की सिल्लियों से ढकीं होती थीं। सड़कों की इन मोरियों में नरमोखे भी बने होते थे। सड़कों और मोरियों के अवशेष बनावली में भी मिले हैं।

इस किले को अंग्रेज नहीं कर पाए थे फतह!

राजस्थान का इतिहास जितना वैभवपूर्ण, उतना ही गौरवशाली। यहां के राजाओं ने अपनी रियासत के लिए जान की परवाह तक नहीं की। "भरतपुर का ऐतिहासिक किला" अजेय होने के कारण "लौहगढ़" कहलाता है। सदियों से चली आ रही परंपरा को बरकरार रखने के लिए यहां के राजाओं ने मातृभूमि की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी है। राजाओं ने अपनी शान-ओ-शौकत के लिए सब कुछ न्यौछावर कर दिया। ऐसी ही एक रियासत है भरतपुर। इसे राजस्थान का पूर्व सिंहद्वार भी कहा जाता है। यहीं स्थित है यह अजेय दुर्ग। जो फौलादी दृढ़ता के साथ लोहागढ़ के नाम से इतिहास में दर्ज है। जिसपर 13 युद्धों के दौरान दागे गए गोलों का भी कोई असर नहीं हुआ था। यहां जाट राजाओं की हुकूमत थी। जो अपनी दृढ़ता के लिए जाने जाते हैं।

भरतपुर का ऐतिहासिक सफर: राजस्थान की कला-संस्कृति ही नहीं बल्कि इतिहास, भूगोल और समसामयिक दृश्य भी दूसरे राज्यों से अलग है। इतिहासकारों का कहना है कि महाराज सूरजमल सिंह ने 18वीं शताब्दी में भरतपुर को बसाया था। लेकिन एक किवदंती यह भी है कि भगवान राम के छोटे भाई भरत के नाम पर इस नगर का नाम भरतपुर पड़ा। इतिहासकारों का यह भी मनना है कि यहां की जमीन बहुत नीची थी। इसे ऊपर लाने के लिए मिट्टी भरी गई। इसी कारण इसका नाम "भरतपुर" पड़ा।

इस किले के एक कोने पर जवाहर बुर्ज है। यह विजय का प्रतीक है। जाट महाराज द्वारा दिल्ली पर किए गए हमले और उसकी विजय की स्मारक स्वरूप 1765 में बनाया गया था। जबकि दूसरे कोने पर फतह बुर्ज है जो 1805 में अंग्रेजी के सेना के छक्के छुड़ाने और परास्त करने की यादगार है। यहां तक अष्टधातु के दरवाजे जो अलाउद्दीन खिलजी पद्मिनी के चित्तौड़ से छीन कर ले गया था। उसे भरतपुर के राजा दिल्ली से उखाड़ कर ले आए।
मिट्टी से बना हुआ है यह किला:  चारों ओर पानी से भरी हुई खाई है। इस खाई के बाहर मिट्टी का बना किला है। जिसपर अंग्रेजों की सेनाओं ने कई बार तोप के गोले दागे थे। लेकिन इस किले का कुछ नहीं बिगाड़ सके।राजस्थान का इतिहास लिखने वाले अंग्रेज इतिहासकार जेम्स टाड के अनुसार इस किले की सबसे बड़ी खासियत है कि इसकी दीवारें मिट्टी से बनी हुई हैं। इसके बावजूद इस किले को फतह करना लोहे के चने चबाने से कम नहीं था। इसलिए यह किला आज भी अजेय दुर्ग लोहागढ़ के नाम से जाना जाता है। वैसे भरतपुर का पुराना नाम लोहागढ़ ही है।

13 बार किले पर हमला: इतिहासकारों के अनुसार अजेय दुर्ग पर अंग्रेजों ने 13 बार आक्रमण किया था। लेकिन हर बार उन्हें नाकामी ही मिली। ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेजों की सेना बार-बार हारने से हताश हो गई तो वहां से भाग गई। ये भी कहावत है कि भरतपुर के जाटों की वीरता के आगे अंग्रेजों की एक न चली थी।
अंग्रेजी सेनाओं से लड़ते-लड़ते होल्कर नरेश जशवंतराव भागकर भरतपुर आ गए थे। जाट राजा रणजीत सिंह ने उन्हें वचन दिया था कि आपको बचाने के लिए हम सब कुछ कुर्बान कर देंगे। अंग्रेजी सेना के कमांडर इन चीफ लॉर्ड लेक ने भरतपुर के जाट राजा रणजीत सिंह को सूचना दी कि वे जसवंत राव होल्कर को अंग्रेजों के हवाले कर दें। ऐसा नहीं करने पर अंजाम काफी बुरा होगा। यह धमकी जाट राजा के स्वभाव के सर्वथा खिलाफ  थी।

जाट राजा अपनी आन-बान और शान के लिए मशहूर रहे हैं। जाट राजा रणजीत सिंह ने भी लॉर्ड लेक को संदेश भेजा। जिसमें उन्होंने कहा कि आप हमारे हौसले को आजमा लें। हमने लडऩा सीखा है, झुकना नहीं। यह बात अंग्रेजी सेना के कमांडर को बुरी लगी और भारी सेना के साथ भरतपुर पर आक्रमण कर दिया।

संधि को भी ठुकराया: युद्ध से विस्मत होकर लार्ड लेक ने भरतपुर संधि का प्रस्ताव भेजा। लेकिन राजा रणजीत सिंह ने अंग्रेजों की यह संधि को ठुकराते हुए युद्ध के लिए ललकारा। अंग्रेजों के सामने जाट सेनाएं निर्भिकता से डटी रहीं। अंग्रेजी सेना तोप से गोले उगलती जा रही थी और वह गोले भरतपुर की मिट्टी के उस किले के पेट में समाते जा रहे थे। तोप के गोलों के घमासान हमले के बाद भी जब भरतपुर का किला ज्यों का त्यों खड़ा रहा तो अंग्रेजी सेना में आश्चर्य और सनसनी फैल गयी।

तोप के गोले धंस जाते थे दीवार में: यह किला यद्यपि इतना विशाल नहीं है, जितना चित्तौड़ का किला। लेकिन फिर भी इस किले को अजेय माना जाता है। इस किले की एक और खास बात यह है कि किले के चारों ओर मिट्टी के गारे की मोटी दीवार है। इसके बाहर पानी से भरी हुई खाई है। यही वजह है कि इस किले पर आक्रमण करना सहज नहीं था। क्योंकि तोप से निकले हुए गोले गारे की दीवार में धंस जाते और उनकी आग शांत हो जाती। ऐसी असंख्य गोले दागने के बावजूद इस किले की पत्थर की दीवार ज्यों की त्यों सुरक्षित बनी रही है। इसलिए दुश्मन इस किले के अंदर कभी प्रवेश नहीं कर सके।


लॉर्ड लेक स्वयं विस्मित होकर इस किले की अद्भुत क्षमता को देखते और आंकते रहे। संधि का संदेश फि र दोहराया गया और राजा रणजीत सिंह ने अंग्रेजी सेना को एक बार फि र ललकार दिया। अंग्रेजों की फौज को लगातार रसद और गोला बारूद आते जा रहे थे और वह अपना आक्रमण निरंतर जारी रखती रही। परन्तु भरतपुर के किले, और जाट सेनाएँ, जो अडिग होकर अंग्रेजों के हमलों को झेलती रही और मुस्कुराती रही। इतिहासकारों का कहना है कि लार्ड लेक के नेतृत्व में अंग्रेजी सेनाओं ने 13 बार इस किले में हमला किया और हमेशा उसे मुँह की खानी पड़ी और अंग्रेजी सेनाओं को वापस लौटना पड़ा।

महाराजा रणजीत सिंह ने होल्कर नरेश को बिदाई दी। होल्कर नरेश ने रुँधे गले से कहा कि होल्कर भरतपुर का सदा कृतज्ञ रहेगा, हमारी यह मित्रता अमर रहेगी और इस मित्रता का चश्मदीद गवाह रहेगा, भरतपुर का ऐतिहासिक किला, जिसमें रक्षा करने वाले 8 भाग हैं और अनेक बुर्ज भी। इस किले के दोनों दरवाजों को जाट महाराज जवाहर सिंह दिल्ली से लाए थे।

भरतपुर के इस दुर्ग का महत्व यहाँ स्थित राजकीय संग्रहालय के कारण बढ़ जाता है। लोहागढ़ के केन्द्र में स्थित इस संग्रहालय में समीपस्थ जगहों और भरतपुर राज्य से संग्रह किये गए पुरातत्व महत्व की वस्तुओं का बहुमूल्य संकलन है। कचहरी कलाँ नाम के विशाल शाही भवन को, जो किसी समय में भरतपुर राज्य का प्रशासनिक कार्यालय था 1944 में संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया था। बाद में दूसरी मंजिल पर स्थित कमरा खास को भी इस संग्रहालय में शामिल कर लिया गया। यहां पर प्राचीन गाँवों नोह, मल्लाह, बरेह, बयाना आदि के कुषाण काल (पहली शताब्दी) से लेकर 19वीं शती तक की मूर्तियाँ तथा मध्यकाल में जाट राजाओं द्वारा प्रयोग किये गए अस्त्रशस्त्र, कलाकृतियाँ, अभिलेख, जीवाश्म स्थानीय शिल्प व कला को प्रदर्शित किया गया है।

इस नगरी में कई प्रसिद्ध मंदिर है, जिसमें गंगा मंदिर, लक्ष्मण मंदिर तथा बिहारीजी का मंदिर अत्यंत लोकप्रिय और ख्यातिप्राप्त है। शहर के बीच में एक बड़ी जामा मस्जिद भी है। ये मंदिर और मस्जिद पूर्ण रूप से लाल पत्थर के बने हैं। इन मंदिरों और मस्जिद के बारे में एक अजीब कहानी प्रचलित है। बड़े-बूढ़े लोगों का कहना है कि भरतपुर रियासत में जब महाराजा किसी व्यक्ति को नौकरी पर रखते थे तो उस व्यक्ति के साथ यह शर्त रखी जाती थी कि हर महीने उसकी तनख्वाह में से 1 पैसा धर्म के खाते काट लिया जाएगा। हर नौकर को यह शर्त मंजूर थी।

रियासत के हर कर्मचारी के वेतन से 1 पैसा हर महीने धर्म के खाते में जमा होता था। इस धर्म के भी दो खाते थे, हिन्दू कर्मचारियों का पैसा हिन्दू धर्म के खाते में जमा होता था और मुस्लिम कर्मचारियों का पैसा इस्लाम धर्म के खाते में इकट्ठा किया जाता था। कर्मचारियों के मासिक कटौती से इन खातों में जो भारी रकम जमा हो गई, उसका उपयोग धार्मिक प्रतिष्ठानों के उपयोग में किया गया। हिन्दुओं के धर्म खाते से लक्ष्मण मंदिर और गंगा मंदिर बनाए गए, जबकि मुसलमानों के धर्म खाते से शहर की बीचों बीच बहुत बड़ी मस्जिद का निर्माण किया गया। भरतपुर के शासकों ने हिन्दू और मुसलमानों की सहयोग और सामंजस्य की भावना को प्रश्रय दिया। धर्म निरपेक्षता के ऐसे उदाहरण बिरले ही होंगे। कभी भरतपुर जाना हो तो मंदिर और मस्जिद को देखना न भूलें, जो पत्थर की वस्तुकला और पच्चीकारी में अद्भुत नमूने हैं।

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

राजा ने मांगी निशानी...और रानी ने अपना सिर काटकर पेश किया

शादी को महज एक सप्ताह हुआ था। न हाथों की मेहंदी छूटी थी और न ही पैरों का आलता। सुबह का समय था। हाड़ा सरदार गहरी नींद में थे। रानी सज धजकर राजा को जगाने आई। उनकी आखों में नींद की खुमारी साफ झलक रही थी। रानी ने हंसी ठिठोली से उन्हें जगाना चाहा। इस बीच दरबान आकर वहां खड़ा हो गया। राजा का ध्यान न जाने पर रानी ने कहा, महाराणा का दूत काफी देर से खड़ा है। वह ठाकुर से तुरंत मिलना चाहते हैं। आपके लिए कोई आवश्यक पत्र लाया है उसे अभी देना जरूरी है।

असमय में दूत के आगमन का समाचार। ठाकुर हक्का बक्का रह गया। वे सोचने लगे कि अवश्य कोई विशेष बात होगी । राणा को पता है कि वह अभी ही ब्याह कर के लौटे हैं। आपात की घड़ी ही हो सकती है । उसने हाड़ी रानी को अपने कक्ष में जाने को कहा, दूत का तुरंत लाकर बिठाओ। मैं नित्यकर्म से शीघ्र ही निपटकर आता हूं, हाड़ा सरदार ने दरबान से कहा। सरदार जल्दी जल्दी में निवृत्त होकर बाहर आया। सहसा बैठक में बैठे राणा के दूत पर उसकी निगाह जा पड़ी। औपचारिकता के बाद ठाकुर ने दूत से कहा, अरे शार्दूल तू। इतनी सुबह कैसे? क्या भाभी ने घर से खदेड़ दिया है? सारा मजा फिर किरकिरा कर दिया।

सरदार ने फिर दूत से कहा, तेरी नई भाभी अवश्य तुम पर नाराज होकर अंदर गई होगी। नई नई है न। इसलिए बेचारी कुछ नहीं बोली। ऐसी क्या आफत आ पड़ी थी। दो दिन तो चैन की बंसी बजा लेने देते। मियां बीवी के बीच में क्यों कबाब में हड्डी  बनकर आ बैठे। अच्छा बोलो राणा ने मुझे क्यों याद किया है? वह ठहाका मारकर हंस पड़ा। दोनों में गहरी दोस्ती थी। सामान्य दिन अगर होते तो वह भी हंसी में जवाब देता। शार्दूल खुद भी बड़ा हंसोड़ था। वह हंसी मजाक के बिना एक क्षण को भी नहीं रह सकता था, लेकिन वह बड़ा गंभीर था। दोस्त हंसी छोड़ो। सचमुच बड़ी संकट की घड़ी आ गई है। मुझे भी तुरंत वापस लौटना है। यह कहकर सहसा वह चुप हो गया। अपने इस मित्र के विवाह में बाराती बनकर गया था। उसके चेहरे पर छाई गंभीरता की रेखाओं को देखकर हाड़ा सरदार का मन आशंकित हो उठा। सचमुच कुछ अनहोनी तो नहीं हो गयीं है।
दूत संकोच रहा था कि इस समय राणा की चिट्ठी वह मित्र को दे या नहीं। हाड़ा सरदार को तुरंत युद्ध के लिए प्रस्थान करने का निर्देश लेकर वह लाया था। उसे मित्र के शब्द स्मरण हो रहे थे। हाड़ा के पैरों के नाखूनों में लगे महावर की लाली के निशान अभी भी वैसे के वैसे ही उभरे हुए थे। नव विवाहित हाड़ी रानी के हाथों की मेंहदी भी तो अभी सूखी न होगी। पति पत्नी ने एक दूसरे को ठीक से देखा पहचाना नही होगा। कितना दुखदायी होगा उनका बिछोह? यह स्मरण करते ही वह सिहर उठा। पता नहीं युद्ध में क्या हो? वैसे तो राजपूत मृत्यु को खिलौना ही समझता हैं। अंत में जी कड़ा करके उसने हाड़ा सरदार के हाथों में राणा राजसिंह का पत्र थमा दिया। राणा का उसके लिए संदेश था।

क्या लिखा था पत्र में
वीरवर। अविलंब अपनी सैन्य टुकड़ी को लेकर औरंगजेब की सेना को रोको। मुसलमान सेना उसकी सहायता को आगे बढ़ रही है। इस समय औरंगजेब को मैं घेरे हुए हूं। उसकी सहायता को बढ़ रही फौज को कुछ समय के लिए उलझाकर रखना है ताकि वह शीघ्र ही आगे न बढ़ सके तब तक मैं पूरा काम निपट लेता हूं। तुम इस कार्य को बड़ी कुशलता से कर सकते हो। यद्यपि यह बड़ा खतरनाक है। जान की बाजी भी लगानी पड़ सकती है। मुझे तुम पर भरोसा है। हाड़ा सरदार के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। एक ओर मुगलों की विपुल सेना और उसकी सैनिक टुकड़ी अति अल्प है। राणा राजसिंह ने मेवाड़ के छीने हुए क्षेत्रों को मुगलों के चंगुल से मुक्त करा लिया था। औरंगजेब के पिता शाहजहां ने अपनी एडी चोटी की ताकत लगा दी थी। वह चुप होकर बैठ गया था। अब शासन की बागडोर औरंगजेब के हाथों में आई थी। राणा से चारुमती के विवाह ने उसकी द्वेष भावना को और भी भड़का दिया था। इसी बीच में एक बात और हो गयीं थी जिसने राजसिंह और औरंगजेब को आमने सामने लाकर खड़ा कर दिया था। यह संपूर्ण हिन्दू जाति का अपमान था। इस्लाम को कुबूल करो या हिन्दू बने रहने का दंड भरो। यही कह कर हिन्दुओं पर उसने जजिया कर लगाया था।

राणा राजसिंह ने इसका विरोध किया था। उनका मन भी इसे सहन नहीं कर रहा था। इसका परिणाम यह हुआ कई अन्य हिन्दू राजाओं ने उसे अपने यहां लागू करने में आनाकानी की। उनका साहस बढ़ गया था। गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेंकने की अग्नि जो मंद पड़ गयीं थी फिर से प्रज्ज्वलित हो गई थी। दक्षिण में शिवाजी , बुंदेलखंड में छत्रसाल, पंजाब में गुरु गोविंद सिंह, मारवाड़ में राठौड़ वीर दुर्गादास मुगल सल्तनत के विरुद्ध उठ खड़े हुए थे। यहां तक कि आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह और मारवाड़ के जसवंत सिंह जो मुगल सल्तनत के दो प्रमुख स्तंभ थे। उनमें भी स्वतंत्रता प्रेमियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न हो गई थी।

मुगल बादशाह ने एक बड़ी सेना लेकर मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया था। राणा राजसिंह ने सेना के तीन भाग किए थे। मुगल सेना के अरावली में न घुसने देने का दायित्व अपने बेटे जयसिंह को सौपा था। अजमेर की ओर से बादशाह को मिलने वाली सहायता को रोकने का काम दूसरे बेटे भीम सिंह का था। वे स्वयं अकबर और दुर्गादास राठौड़ के साथ औरंगजेब की सेना पर टूट पड़े थे। सभी मोर्चों पर उन्हें विजय प्राप्त हुई थी । बादशाह औरंगजेब की बड़ी प्रिय कॉकेशियन बेगम बंदी बना ली गयीं थी । बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार औरंगजेब प्राण बचाकर निकल सका था ।मेवाड़ के महाराणा की यह जीत ऐसी थी कि उनके जीवन काल में फिर कभी औरंगजेब उनके विरुद्ध सिर न उठा सका था।

लेकिन क्या इस विजय का श्रेय केवल राणा को था या किसी और को? हाड़ा रानी और हाड़ा सरदार को किसी भी प्रकार से गम नहीं था। मुगल बादशाह जब चारों ओर राजपूतों से घिर गए। उसकी जान के भी लाले पड़े थे। उसका बचकर निकलना मुश्किल हो गया था तब उसने दिल्ली से अपनी सहायता के लिए अतिरिक्त सेना बुलवाई थी। राणा को यह पहले ही ज्ञात हो चुका था।

उन्होंने मुगल सेना के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करन के लिए हाड़ा सरदार को पत्र लिखा था। वही संदेश लेकर शार्दूल सिंह मित्र के पास पहुंचा था। एक क्षण का भी विलंब न करते हुए हाड़ा सरदार ने अपने सैनिकों को कूच करने का आदेश दे दिया था। अब वह पत्नी से अंतिम विदाई लेने के लिए उसके पास पहुंचा था।

केसरिया बाना पहने युद्ध वेष में सजे पति को देखकर हाड़ी रानी चौंक पड़ी वह अचंभित थी। कहां चले स्वामी? इतनी जल्दी। अभी तो आप कह रहे थे कि चार छह महीनों के लिए युद्ध से फुरसत मिली है आराम से कटेगी यह क्या? आश्चर्य मिश्रित शब्दों में हाड़ी रानी पति से बोली। प्रिय। पति के शौर्य और पराक्रम को परखने के लिए लिए ही तो क्षत्राणियां इसी दिन की प्रतीक्षा करती है। वह शुभ घड़ी अभी ही आ गई। देश के शत्रुओं से दो दो हाथ होने का अवसर मिला है। मुझे यहां से अविलंब निकलना है। हंसते-हंसते विदा दो। पता नहीं फिर कभी भेंट हो या न हो हाड़ा सरदार ने मुस्करा कर पत्नी से कहा। हाड़ा सरदार का मन आशंकित था। सचमुच ही यदि न लौटा तो। मेरी इस अर्धांगिनी का क्या होगा ? एक ओर कर्तव्य और दूसरी ओर था पत्नी का मोह। इसी अन्तर्द्वंद में उसका मन फंसा था। उसने पत्नी को राणा राजसिंह के पत्र के संबंध में पूरी बात विस्तार से बता दी थी।
विदाई मांगते समय पति का गला भर आया है यह हाड़ी राजी की तेज आंखों से छिपा न रह सका। यद्यपि हाड़ा सरदार ने उसे भरसक छिपाने की कोशिश की। हताश मन व्यक्ति को विजय से दूर ले जाता है। उस वीर बाला को यह समझते देर न लगी कि पति रणभूमि में तो जा रहा है पर मोहग्रस्त होकर। पति विजयश्री प्राप्त करें इसके लिए उसने कर्तव्य की वेदी पर अपने मोह की बलि दे दी। वह पति से बोली स्वामी जरा ठहरिए। मैं अभी आई। वह दौड़ी-दौड़ी अंदर गयीं। आरती का थाल सजाया। पति के मस्तक पर टीका लगाया, उसकी आरती उतारी। वह पति से बोली। मैं धन्य हो गयीं, ऐसा वीर पति पाकर। हमारा आपका तो जन्म जन्मांतर का साथ है। राजपूत रमणियां इसी दिन के लिए तो पुत्र को जन्म देती हैं आप जाएं स्वामी। मैं विजय माला लिए द्वार पर आपकी प्रतीक्षा करूंगी। उसने अपने नेत्रों में उमड़ते हुए आंसुओं को पी लिया था। पति को दुर्बल नहीं करना चाहती थी। चलते चलते पति उससे बोला प्रिय। मैं तुमको कोई सुख न दे सका,  बस इसका ही दुख है मुझे भूल तो नहीं जाओगी ? यदि मैं न रहा तो ............ । उसके वाक्य पूरे भी न हो पाए थे कि हाड़ी रानी ने उसके मुख पर हथेली रख दी। न न स्वामी। ऐसी अशुभ बातें न बोलों। मैं वीर राजपूतनी हूं, फिर वीर की पत्नी भी हूं। अपना अंतिम धर्म अच्छी तरह जानती हूं आप निश्चित होकर प्रस्थान करें। देश के शत्रुओं के दांत खट्टे करें। यही मेरी प्रार्थना है।

हाड़ा सरदार ने घोड़े को ऐड़ लगायी। रानी उसे एकटक निहारती रहीं जब तक वह आंखे से ओझल न हो गया। उसके मन में दुर्बलता का जो तूफान छिपा था जिसे अभी तक उसने बरबस रोक रखा था वह आंखों से बह निकला। हाड़ा सरदार अपनी सेना के साथ हवा से बाते करता उड़ा जा रहा था। किन्तु उसके मन में रह रह कर आ रहा था कि कही सचमुच मेरी पत्नी मुझे बिसार न दें? वह मन को समझाता पर उसक ध्यान उधर ही चला जाता। अंत में उससे रहा न गया। उसने आधे मार्ग से अपने विश्वस्त सैनिकों के रानी के पास भेजा। उसकों फिर से स्मरण कराया था कि मुझे भूलना मत। मैं जरूर लौटूंगा। संदेश वाहक को आश्वस्त कर रानी ने लौटाया। दूसर दिन एक और वाहक आया।

फिर वही बात। तीसरे दिन फिर एक आया। इस बार वह पत्नी के नाम सरदार का पत्र लाया था। प्रिय मैं यहां शत्रुओं से लोहा ले रहा हूं। अंगद के समान पैर जमारक उनको रोक दिया है। मजाल है कि वे जरा भी आगे बढ़ जाएं। यह तो तुम्हारे रक्षा कवच का प्रताप है। पर तुम्हारे बड़ी याद आ रही है। पत्र वाहक द्वारा कोई अपनी प्रिय निशानी अवश्य भेज देना। उसे ही देखकर मैं मन को हल्का कर लिया करुंगा। हाड़ी रानी पत्र को पढ़कर सोच में पड़ गयीं। युद्धरत पति का मन यदि मेरी याद में ही रमा रहा उनके नेत्रों के सामने यदि मेरा ही मुखड़ा घूमता रहा तो वह शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे। विजय श्री का वरण कैसे करेंगे? उसके मन में एक विचार कौंधा। वह सैनिक से बोली वीर ? मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशान दे रही हूं। इसे ले जाकर उन्हें दे देना। थाल में सजाकर सुंदर वस्त्र से ढककर अपने वीर सेनापति के पास पहुंचा देना। किन्तु इसे कोई और न देखे। वे ही खोल कर देखें। साथ में मेरा यह पत्र भी दे देना। हाड़ी रानी के पत्र में लिखा था प्रिय। मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूं। तुम्हारे मोह के सभी बंधनों को काट रही हूं। अब बेफ्रिक होकर अपने कर्तव्य का पालन करें मैं तो चली... स्वर्ग में तुम्हारी बाट जोहूंगी।

पलक झपकते ही हाड़ी रानी ने अपने कमर से तलवार निकाल, एक झटके में अपने सिर को उड़ा दिया। वह धरती पर लुढ़क पड़ा। सिपाही के नेत्रो से अश्रुधारा बह निकली। कर्तव्य कर्म कठोर होता है सैनिक ने स्वर्ण थाल में हाड़ी रानी के कटे सिर को सजाया। सुहाग के चूनर से उसको ढका। भारी मन से युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा। उसको देखकर हाड़ा सरदार स्तब्ध रह गया उसे समझ में न आया कि उसके नेत्रों से अश्रुधारा क्यों बह रही है? धीरे से वह बोला क्यों यदुसिंह। रानी की निशानी ले आए? यदु ने कांपते हाथों से थाल उसकी ओर बढ़ा दिया। हाड़ा सरदार फटी आंखों से पत्नी का सिर देखता रह गया। उसके मुख से केवल इतना निकला उफ्‌ हाय रानी। तुमने यह क्या कर डाला। संदेही पति को इतनी बड़ी सजा दे डाली खैर। मैं भी तुमसे मिलने आ रहा हूं।

हाड़ा सरदार के मोह के सारे बंधन टूट चुके थे। वह शत्रु पर टूट पड़ा। इतना अप्रतिम शौर्य दिखाया था कि उसकी मिसाल मिलना बड़ा कठिन है। जीवन की आखिरी सांस तक वह लंड़ता रहा। औरंगजेब की सहायक सेना को उसने आगे नहीं  ही बढऩे दिया, जब तक मुगल बादशाह मैदान छोड़कर भाग नहीं गया था। इस विजय को श्रेय किसको? राणा राजसिंहि को या हाड़ा सरदार को। हाड़ी रानी को अथवा उसकी इस अनोखी निशानी को?

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

आखिर क्या हो गया था ऐसा कि इस राजा को युद्ध छोड़कर आना पड़ा राजमहल में

राजस्थान यानी राजाओं की भूमि। यहां एक से बढ़कर एक यशस्वी राजा हुए, जिन्होंने अपनी मातृभूमि के लिए खून बहा दिया। यहां पर ऐसी कई दास्तानें हैं, जिनके बारे में राजस्थान के इतिहासकारों ने लिखते समय भी गौरवान्वित महसूस किया होगा। ऐसी ही एक साहस और दर्द से भरी दास्तान है जोधपुर के राजा जसवंत सिंह की।
इस योद्धा ने अपने सैनिकों को बचाने के लिए युद्धभूमि छोड़ दी, लेकिन यहां रानी ने अपने पति की कुशलक्षेम पूछने के बजाए ऐसी फटकार लगाई कि राजा रानी की ओर देखता ही रह गया। रानी के आन-बान और व्यंग्य भरे शब्द सुनकर राजा को अपनी रानी की बहादुरी और सोच पर बड़ा गर्व हुआ।

हिन्दू धर्म का विरोध नहीं कर पाए थे औरंगजेब: जोधपुर के राजा जसवंत सिंह ने अपने शासन काल के दौरान कई युद्धों में दिल्ली के बादशाह शाहजहां और औरंगजेब का साथ दिया। इसमें उन्होंने सैन्य अभियानों का नेतृत्व किया। हालांकि, जब तक जसवंत सिंह जीवित थे, तब तक औरंगजेब मंदिर तोडऩा तो दूर जजिया कर (एक तरह का धार्मिक कर) भी नहीं ले पाए थे। लेकिन जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने राजस्थान पर आक्रमण करना और अपना प्रभुत्व जमाना शुरू कर दिया। शायद यही वजह थी कि जसवंत सिंह के जीवित रहते औरंगजेब कभी सफल नहीं हो सका। 28 नवम्बर, 1678 को काबुल में जसवंत सिंह के निधन का समाचार जब औरंगजेब ने सुना,  तब उसने कहा, "आज धर्म विरोध का द्वार टूट गया है"।

जिस बालक ने सेना के ऊंटों के काटे थे सिर, उसे को बनाया अंगरक्षक: ये वही जसवंत सिंह थे, जिन्होंने एक वीर व निडर बालक द्वारा जोधपुर सेना के ऊंटों की व उन्हें चराने वालों की गर्दन काटने पर सजा के बदले उस वीर बालक की स्पष्टवादिता, वीरता और निडरता देख उसे सम्मान के साथ अपना अंगरक्षक बनाया और बाद में अपना सेनापति भी। यह बालक कोई और नहीं, इतिहास में वीर के साथ स्वामिभक्त के रूप में प्रसिद्ध वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौड़ था।

महाराजा की तरह आन-बान की पक्की थी रानी: जसवंत सिंह वीर पुरुष थे। ठीक उसी तरह हाड़ी रानी भी आन-बान की पक्की थी। हाड़ी रानी बूंदी के शासक शत्रुशाला हाड़ा की पुत्री थी। 1657 में शाहजहां के बीमार पड़ने पर उसके पुत्रों ने दिल्ली की बादशाहत के लिए विद्रोह कर दिया। उनमें एक पुत्र औरंगजेब का विद्रोह दबाने हेतु शाहजहां ने जसवंत सिंह को मुगल सेनापति कासिम खां सहित भेजा। उज्जैन से 15 मील दूर धनपत के मैदान में भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन धूर्त और कूटनीति में माहिर औरंगजेब की कूटनीति के चलते मुगल सेनापति कासिम खां सहित 15 अन्य मुगल अमीर भी औरंगजेब से मिल गए। राजपूत सरदारों ने शाही सेना के मुस्लिम अफसरों के औरंगजेब से मिलने व मराठा सैनिकों के भी भाग जाने के चलते यह तय किया कि कई सेनाओं को वापिस भेजा जाएगा। युद्ध की भयंकरता व परिस्थितियों को देखकर घायल हो चुके महाराज जसवंत सिंह जी को जबरदस्ती घोड़े पर बिठा 600 राजपूत सैनिकों के साथ जोधपुर रवाना कर दिया और उनके स्थान पर रतलाम नरेश रतन सिंह को अपना नायक नियुक्त कर औरंगजेब के साथ युद्ध करने लगे। इस युद्ध में इन सभी को वीरगति प्राप्त हुई। इस युद्ध में औरंगजेब की विजय हुई।

 रानी ने लगाई महाराजा को फटकार, कहा, क्यूं आए आप महल में : महाराजा जसवंत सिंह के जोधपुर पहुंचने की खबर जब किलेदारों ने महारानी को दी, तो महारानी हैरान रह गईं। किलेदारों ने महाराज के स्वागत की तैयारियों का अनुरोध किया, लेकिन महारानी ने सेवकों को किले के दरवाजे बंद करने के आदेश दे दिए। साथ ही, अपने पति महाराज जसवंत सिंह को कहला भेजा कि युद्ध से हारकर जीवित आए राजा के लिए किले में कोई जगह नहीं  होती। अपनी सास राजमाता से कहा कि आपके पुत्र ने यदि युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त किया होता तो मुझे गर्व होता और मैं अपने आप को धन्य समझती। लेकिन आपके पुत्र ने तो पूरे राठौड़ वंश के साथ-साथ मेरे हाड़ा वंश को भी कलंकित कर दिया। आखिर महाराजा द्वारा रानी को विश्वास दिलाने के बाद कि मैं युद्ध से कायर की तरह भाग कर नहीं  आया, बल्कि मैं तो सैन्य-संसाधन जुटाने आया हूं। रानी ने किले के दरवाजे खुलवाए।

लकड़ी के बर्तनों में परोसा खानाः  रानी ने महाराजा को चांदी के बर्तनों की बजाय लकड़ी के बर्तनों में खाना परोसा और महाराजा द्वारा कारण पूछने पर बताया कि कही बर्तनों के टकराने की आवाज को आप तलवारों की खनखनाहट समझकर डर न जाए, इसलिए आपको लकड़ी के बर्तनों में खाना परोसा गया है। रानी के व्यंग्य बाण रूपी शब्दों को सुनकर महाराज को अपनी रानी पर बड़ा गर्व हुआ और वह फिर से अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने लगे।

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

अपनी प्रेमिका को बीच स्वयंवर से उठा ले आया था यह राजा

प्रेम चाहे राजा करे या फिर रंक। दोनों को दुनिया के विरोध का सामना करना पड़ता है। हम आपको बता रहे हैं एक ऐसे राजा की कहानी। जो अपनी प्रेमिका को हजारों की भीड़ में स्वयंवर से उठा लाया। ये कोई और नहीं चौहान राजवंश के पृथ्वीराज चौहान थे। ये चौहान वंश के इकलौते वारिस थे, जिन्होंने अपनी मोहब्बत को पाने के लिए किसी भी अंजाम की परवाह नहीं की।

पहली ही नजर में हो गया था प्यार: पृथ्वीराज किसी कारणवश कन्नौज गए थे। वहां संयोगिता से उनकी मुलाकात हुई। पहली नजर में ही पृथ्वीराज को संयोगिता से प्रेम हो गया। इस प्यार की आग एक तरफ ही नहीं लगी थी बल्कि संयोगिता को भी प्रेम हो गया था। लेकिन दोनों का मिलना सहज नहीं था। महाराज जयचंद और पृथ्वीराज चौहान के बीच अच्छे रिश्ते नहीं थे। दोनों एक दूसरे को देखना नहीं चाहते थे। कहा जा सकता है कि दोनों एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन थे। यह बात जब जयचंद को पता चली तो वह आनन-फानन में संयोगिता का स्वयंवर आयोजित कर दिया। जिसमें पृथ्वीराज को खासतौर से नहीं बुलाया गया। वह दरबार में न आ सके इसके लिए भी सुरक्षा के पुख्ता का इंतजाम किए गए थे। पृथ्वीराज का अपमान करने और उसे नीचा दिखाने के लिए दरबान के स्थान पर उनकी प्रतिमा लगाई गई। ताकि दरबार आने वाले हर शासक और मेहमान की नजर इस पर पड़े और वे पृथ्वीराज का उपहास कर सके।

राजा बन गए बुत : दरबार में आने से पहले पृथ्वीराज ने अपना पूरा स्वरूप बदल दिया। वे दरबार में रखे अपने बुत जैसे बन कर आए और उस प्रतिमा की जगह खड़े हो गए। दरबार में रखी प्रतिमा थी। जैसे ही स्वयंवर शुरू हुआ पृथ्वीराज संयोगिता को भरे दरबार से उठा कर ले गए। सभी एक दूसरे का मुंह देखते ही रह गए। पृथ्वीराज ने इस कार्य को अंजाम देने के लिए पहले से ही योजना बना रखी थी। इसके लिए उन्होंने एक घोड़े और अपने कुछ खास लोगों को दरबार के बाहर खड़ा रखा था। जैसे ही पृथ्वीराज संयोगिता को लेकर बाहर आए , योजना  के अनुसार वे संयोगिता के साथ घोड़े पर बैठे और निकल पड़े अपनी राजधानी की ओर।
मीलों का सफर घोड़े पर तय किया। हालांकि जयचंद के सिपाहियों ने उन्हें रोकने और पकडऩे की काफी कोशिश की। लेकिन वे नाकाम रहे। राजधानी पहुंचते ही पृथ्वीराज ने संयोगिता से पूरे रस्मो-रिवाज के साथ विवाह किया।

बचपन में दे दिया था अपनी वीरता का परिचय: इनकी प्रेम कहानी राजस्थान के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। पृथ्वीराज चौहान को उनके नाना ने गोद लिया था। उस समय दिल्ली सल्तनत को सुचारू रूप से चलाने के लिए एक ऐसे शासक की जरूरत थी। जिसकी रगों में चौहान वंश का खून हो। आखिरकार एक लंबे समय के बाद अजमेर के महाराज सोमेश्वर के यहां पृथ्वीराज चौहान जन्म हुआ। इनकी मां कर्पूरी देवी थी। जो दिल्ली के राजा अनंगपाल की इकलौती पुत्री थी। कम उम्र में दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाला पृथ्वीराज पहला शासक थे। उम्र इतनी कम और वीरता के कारनामे इतने अधिक कि जो दूसरे शासकों की आंखों का काटा बन गए।

बदला लेने के लिए मोहम्मद गौरी को दिया न्योता: जयचंद ने  इस अपमान का बदला लेने के लिए मोहम्मद गौरी से हाथ मिला लिया। जयचंद ने मोहम्मद गौरी को पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए न्योता दिया। जयचंद का नाम सबसे बड़े धोखेबाजों में लिया जाता है, जिसने अपने ही दामाद को मरवाने के लिए घऱ की भेदी की भूमिका निभाई। पृथ्वीराज को हराने के लिए मोहम्मद गौरी ने 17 बार आक्रमण किया। लेकिन वह हर बार परास्त हुआ। हर बार पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी को छोड़ दिया। न उसे बंधक बनाया और न उसे किसी तरह की यातना दी। कहते है न की सांप अधमरा काफी घातक होता है। ठीक वैसा ही मोहम्मद साबित हुआ। एक बार फिर से आक्रमण में मोहम्मद गौरी जुट गया। इस बार पूरी सैन्य शक्ति और योजना के साथ आक्रमण किया। इतिहासकारों का कहना है कि एक हद तक पृथ्वीराज मोहम्मद गौरी को परास्त कर चुका था। लेकिन छल से मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज को बंधक बना लिया और उसे अपने साथ अपने मुल्क ले गया। वहां उसने पृथ्वीराज से अत्यन्त बुरा सलूक किया। उसने गरम सलाखों से उसकी आंखें जला दी। लेकिन पृथ्वीराज फिर भी हार नहीं माने। उन्होंने राजकवि चंदबरदाई के साथ मिलकर एक योजना बनाई। पृथ्वीराज ने शब्दभेदी बाण चलाने के लिए प्रशिक्षण लिया।

वैसे तो पृथ्वीराज बाण छोडऩे में माहिर थे। लेकिन इस कला के प्रदर्शन के लिए चंदबरदाई ने गौरी तक यह बात पहुंचाई। गौरी ने इस प्रदर्शन के लिए यह सोच मंजूरी दे दी कि एक अंधा क्या बाण चला सकता है। भरी महफिल में पृथ्वीराज ने गौरी को शब्दभेदी बाण से मार गिराया। इसके बाद दुश्मन के हाथों मरने से बेहतर उन्होंने और उनके राजकवि चंदरबरदाई ने एक दूसरे को मार वीरगित प्राप्त कर ली।

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

महज 11 साल की उम्र में इस राजा ने दुश्मनों के छुड़ा दिए थे छक्के



 राजस्थान वीरों की धरती है। यहां ऐसे शासक हुए जो अपनी राज्य की सीमा तक ही सीमित नहीं रहे। इन्होंने अपनी वीरता का परिचय कद से बढ़ कर दिया। बाहुबली तो थे ही, साथ ही अपनी विवेक और चतुराई से दुश्मनों को धूल चटाने में भी पीछे नहीं रहे। ऐसी ही एक मिसाल पृथ्वीराज चौहान के नाम की भी है। इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो पृथ्वीराज अनगिनत युद्ध में अपनी वीरता के परचम लहरा चुके हैं। इतिहासकारों के अनुसार महज 11 साल की उम्र में पृथ्वीराज चौहान ने विद्रोही नागार्जुन के छक्के छुड़ा दिए थे। उसे बुरी तरह से पराजित ही नहीं बल्कि मौत के घाट उतार दिया था। एक बार फिर दिल्ली और अजमेर रियासत पूरी तरह से महफूज हो चुकी थी। पृथ्वीराज ने अपनी वीरता और साहस का परिचय बचपन में दे दिया था। कहा जाता है कि पृथ्वीराज ने बाल अवस्था में ही शेर से लड़ाई कर उसका जबड़ा फाड़ डाला था। वैसे चौहान तलवारबाजी के शौकीन थे। शायद यही वजह थी कि इतनी कम उम्र में अपने दुश्मनों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।


दिल्ली से शुरू हुआ शासन का सफर: 1177 में पृथ्वीराज दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठे। हालात काफी नाजुक थे। भारत पर बाहरी आक्रमण का बोलवाला था। पृथ्वीराज के इतने कम उम्र में गद्दी पर बैठ जाने पर राजनीतिक खलबली मच गई थी। इस बीच विद्रोही नागार्जुन को पृथ्वीराज के गद्दी पर बैठना गवारा नहीं था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उसने काफी दिनों तक दिल्ली को बाहरी आक्रमण से महफूज रखा था। इसके बावजूद दिल्ली की बागडोर उसकी हाथों से निकल गई। विद्रोह का लावा फूट पड़ा। उसने पृथ्वीराज के खिलाफ आवाज उठा दी। स्थिति को देखते हुए पृथ्वीराज की मां (कर्पूर देवी) ने शासन का बागडोर अपने हाथों में ले ली। ताकि मंत्रियों और अधिकारियों पर नजर रखी जा सके । साथ ही सेना को सुढ्ढ़ किया जा सके।
ऐसा कहा जा सकता है कि पृथ्वीराज को अपनी मां की देखरेख में शासन चलाना पड़ा। लेकिन लगभग 1178 में पृथ्वीराज ने स्वयं सभी कामकाज अपने हाथ में लिया। इतिहासकारों के अनुसार मां के सान्निध्य में ही पृथ्वीराज ने विद्रोही नागार्जुन का दमन किया था। मां के साथ शासन का सफर चलता रहा और दिल्ली से लेकर अजमेर तक एक शक्तिशाली साम्राज्य कायम हो गया। भूभाग काफी विस्तृत हो चुका था। इसके बाद पृथ्वीराज ने अपनी राजधानी दिल्ली का नवनिर्माण किया। इससे पहले यहां पर तोमर नरेश ने एक गढ़ का निर्माण शुरू किया था। जिसे पृथ्वीराज ने विशाल रूप देकर पूरा किया। यह किला पिथौरागढ़ कहलाता है। इस किले का नाम पृथ्वीराज के नाम पर रखा गया है। पृथ्वीराज को "राय पिथौरा" भी कहा जाता है। आज भी दिल्ली के पुराने किले के नाम से जीर्णावस्था में विद्यमान है।

पृथ्वीराज के जन्म स्थल और जन्मदिन को लेकर मतभेद: पृथ्वीराज की जन्मतिथि और जन्मस्थल को लेकर कई विद्वानों में मतभेद बना हुआ है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पृथ्वीराज का जन्म गुजरात में हुआ था। तो दिल्ली और राजस्थान के इतिहासकारों का कहाना है कि पृथ्वीराज का जन्म राजस्थान के अजमेर में हुआ था। तिथि को लेकर भी काफी संशय है। 1100 में दिल्ली में महाराजा अनंगपाल का शासन था। उनकी इकलौती संतान पुत्री कर्पूरी देवी थी। कर्पूरी देवी का विवाह अजमेर के महाराजा सोमेश्वर के साथ हुआ था। अजमेर के राजा सोमेश्वर और रानी कर्पूरी देवी के यहां 1149 में एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जो आगे चलकर इतिहास में महान हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जबकि दूसरे इतिहासकार कुछ और बयां कर रहे हैं। उनके अनुसार पृथ्वीराज 11 वर्ष के थे, तब उनके पिता सोमेश्वर का विक्रम संवत 1234 (1177) में देहांत हो गया था। इस अनुसार 1223 विक्रम संवत 1166 में पृथ्वीराज का जन्म हुआ था। विश्व के अधिकांश विद्वानों ने भी इस तिथि को प्रामाणिक माना है।

गद्दी पर बैठते ही शुरू हुआ विद्रोह: दिल्ली सल्तनत पर हुकूमत करना सहज नहीं था। क्योंकि मुस्लिम और देसी रियासतों का आक्रमण दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा था। गद्दी पर बैठते ही सबसे पहले अपने निकट संबंधी नागार्जुन के विरोध का सामना करना पड़ा। नागार्जुन का दमन करने के बाद पृथ्वीराज ने 1191 में मुस्लिम शासक सुल्तान मोहम्मद शहाबुद्दीन गौरी को हराया। इसे इतिहास में तराइन के युद्ध से जाना जाता है। हालांकि गौरी ने दूसरी बार फिर से आक्रमण किया। इस युद्ध में पृथ्वीराज की हार हुई थी। ऐसा इतिहासकारों का मानना है। इस युद्ध के बाद पृथ्वीराज को गौरी अपने साथ ले गया था। इस बात की पुष्टि राजकवि चन्द्रबदाई ने की है। हालांकि इसकी पुष्टि भारत के इतिहासकार नहीं करते हैं। उनका मानना है कि तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज की मौत हो गई थी।

गुजरात के भीमदेव के साथ युद्ध: पृथ्वीराज ने गद्दी पर बैठते अपने साम्राज्य विस्तार और सैनिक को प्रशिक्षित करने में जुट गए। सबसे पहले साम्राज्य विस्तार का सफर राजस्थान से शुरू हुआ। अजमेर के आस-पास के रियासत पर कब्जा करने के  बाद पृथ्वीराज ने गुजरात की की ओर रुख किया। उस समय गुजरात में चालुक्य वंश का शासन था। वहां के महाराजा भीमदेव बघेला थे। हालांकि युद्ध की पहल चालुक्य वंश की ओर से हुई थी।
गुजरात में उस समय चालुक्य वंश के महाराजा भीमदेव बघेला का राज था। उसने पृथ्वीराज के किशोर होने का फायदा उठाना चाहता था। यही विचार कर उसने नागौर पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। पृथ्वीराज किशोर अवश्य था परन्तु उसमें साहस-संयम और निति-निपुणता के भाव कूट-कूट कर भरे हुए थे। जब पृथ्वीराज को पता चला के चालुक्य राजा ने नागौर पर अपना अधिकार करना चाहते है तो उन्होंने भी अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने के लिए कहा। भीमदेव ने ही पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर को युद्ध में हरा कर मृत्यु के घाट उतर दिया था। नौगर के किले के बाहर भीमदेव के पुत्र जगदेव के साथ पृथ्वीराज का भीषण संग्राम हुआ जिसमे अंतत जगदेव की सेना ने पृथ्वीराज की सेना के सामने घुटने टेक दिए। फलस्वरूप जगदेव ने पृथ्वीराज से संधि कर ली और पृथ्वीराज ने उसे जीवन दान दे दिया और उसके साथ वीरतापूर्ण व्यवहार किया। जगदेव के साथ संधि करके उसको अकूत घोड़े, हठी और धन संपदा प्राप्त हुई। आस पास के सभी राज्यों में सभी पृथ्वीराज की वीरता, धीरता और रन कौशल का लोहा मानने लगे। यहीं से पृथ्वीराज चौहान का विजयी अभियान आगे की और बढऩे लगा।


विद्रोही नागार्जुन का अंत: जब महाराज अनंगपाल की मृत्यु हुई उस समय बालक पृथ्वीराज की आयु मात्र 11 वर्ष थी। अनंगपाल का एक निकट सम्बन्धित था विग्रह्राज। विग्रह्राज के पुत्र नागार्जुन को पृथ्वीराज का दिल्लिअधिपति बनाना बिलकुल अच्छा नहीं लगा। उसकी इच्छा अनंगपाल की मृत्यु के बाद स्वयं गद्दी पर बैठने की थी, परन्तु जब अनंगपाल ने अपने जीवित रहते ही पृथ्वीराज को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया तो उसके हृदय में विद्रोह की लहरे मचलने लगी। महाराज की मृत्यु होते ही उसके विद्रोह का लावा फुट पड़ा। उसने सोचा के पृथ्वीराज मात्र ग्यारह वर्ष का बालक है और युद्ध के नाम से ही घबरा जायेगा। नागार्जुन का विचार सत्य से एकदम विपरीत था। पृथ्वीराज बालक तो जरूर था पर उसके साथ उसकी माता कर्पूरी देवी का आशीर्वाद और प्रधानमंत्री एवं सेनाध्यक्ष कमासा का रण कौशल साथ था। विद्रोही नागार्जुन ने शीघ्र ही गुडपुरा (अजमेर) पर चढ़ाई कर दी। गुडपुरा (अजमेर) के सैनिकों ने जल्दी ही नागार्जुन के समक्ष अपने हथियार डाल दिए। अब नागार्जुन का साहस दोगुना हो गया। दिल्ली और अजमेर के विद्रोहियों पर शिकंजा कसने के बाद सेनापति कमासा ने गुडपुरा की और विशाल सेना लेकर प्रस्थान किया। नागार्जुन भी भयभीत हुए बिना अपनी सेना के साथ कमासा से युद्ध करने के लिए मैदान में आ डाटा। दोनों तरफ से सैनिक बड़ी वीरता से लड़े। अंतत: वही जयपुर। राजस्थान वीरों की धरती है। यहां ऐसे शासक हुए जो अपनी राज्य की सीमा तक ही सीमित नहीं रहे। इन्होंने अपनी वीरता का परिचय कद से बढ़ कर दिया। बाहुबली तो थे ही, साथ ही अपनी विवेक और चतुराई से दुश्मनों को धूल चटाने में भी पीछे नहीं रहे। ऐसी ही एक मिसाल पृथ्वीराज चौहान के नाम की भी है। इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो पृथ्वीराज अनगिनत युद्ध में अपनी वीरता के परचम लहरा चुके हैं। इतिहासकारों के अनुसार महज 11 साल की उम्र में पृथ्वीराज चौहान ने विद्रोही नागार्जुन के छक्के छुड़ा दिए थे। उसे बुरी तरह से पराजित ही नहीं बल्कि मौत के घाट उतार दिया था। एक बार फिर दिल्ली और अजमेर रियासत पूरी तरह से महफूज हो चुकी थी। पृथ्वीराज ने अपनी वीरता और साहस का परिचय बचपन में दे दिया था। कहा जाता है कि पृथ्वीराज ने बाल अवस्था में ही शेर से लड़ाई कर उसका जबड़ा फाड़ डाला था। वैसे चौहान तलवारबाजी के शौकीन थे। शायद यही वजह थी कि इतनी कम उम्र में अपने दुश्मनों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।


पृथ्वीराज ने 17 बार किया था गौरी को पराजित:1166 से 1192 तक दिल्ली और अजमेर की हुकूमत पृथ्वीराज चौहान के हाथों में थी। वे चौहान वंश के हिंदू क्षत्रिय राजा थे। जो उत्तरी भारत में एक क्षत्र राज करते थे। किंवदंतियों के अनुसार मोहम्मद गोरी ने 18 बार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था। जिसमें 17 बार गोरी को पराजित होना पड़ा। हालांकि इतिहासकार युद्धों की संख्या के बारे में तो नहीं बताते लेकिन इतना मानते हैं कि गौरी और पृथ्वीराज में कम से कम दो भीषण युद्ध हुए थे। जिनमें प्रथम में पृथ्वीराज विजयी और दूसरे में पराजित हुआ था। वे दोनों युद्ध थानेश्वर के निकटवर्ती तराइन या तरावड़ी के मैदान में 1191 और 1192 में हुए थे।

पृथ्वीराज की मृत्यु पर इतिहासकारों में मतभेद: इतिहासकारों के अनुसार तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय हुई थी। हालांकि इस युद्ध में पृथ्वीराज के योद्धाओं ने मुसलमानी सेना पर भीषण प्रहार कर अपनी वीरता का परिचय दिया था। लेकिन फिर भी गोरी के सैनिकों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया। युद्ध में पराजित होने के बाद पृथ्वीराज की किस प्रकार मृत्यु हुई। इस विषय में इतिहासकारों के विभिन्न मत मिलते है। कुछ के मतानुसार वह पहिले बंदी बनाकर दिल्ली में रखा गया था और बाद में गोरी के सैनिकों द्वारा मार दिया गया था। कुछ का मत है कि उसे बंदी बनाकर गजनी ले जाया गया था और वहां पर उसकी मृत्यु हुई।

शब्दभेदी बाण से मार गिराया गौरी को : चंदबरदाई द्वारा लिखित "पृथ्वीराज रासो" में विस्तार से पृथ्वीराज चौहान के बारे में लिखा गया है। खासतौर पर उनके अंतिम समय के बारे में। जब गौरी उन्हें पकड़कर अपने साथ ले गया और गरम सलाखें दाग कर उनकी आंखे फोड़ दी। अंधे होने के बावजूद पृथ्वीराज एक वीर की मौत मरना चाहते थे। अपने मित्र और राजकवि चंदबरदाई के साथ उन्होंने शब्दभेदी बाण चलाने की पूरी कला पर महारत हासिल की। इसके साथ उन्होंने गौरी से तीरंदाजी कौशल प्रदर्शित करने की अनुमति मांगी। गौरी ने पृथ्वीराज को दरबार में बुलाया। जहां उन्हें कुछ निशानों पर तीर चलाने थे। लेकिन पृथ्वीराज की योजना कुछ और ही थी। वे उन निशानों के बहाने गौरी पर निशाना साधना चाहते थे।

चंदरबरदाई ने दोहे के माध्यम से उन्हें गौरी का स्थान समझाया। जो इस प्रकार है-
"चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण,
ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान।"

इसी शब्दभेदी बाण के द्वारा पृथ्वीराज ने आंकलन करके बाण चला दिया। जिसके फलस्वरूप गौरी का प्राणांत हो गया। चूंकि पृथ्वीराज और चंदरबरदाई दोनों गौरी के सैनिकों से घिरे हुए थे, दुश्मन के हाथों मरने से बेहतर दोनों मित्रों ने एक दूसरे को मारकर वीरगति प्राप्त कर ली।

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

अब अपना भी जहां है

सोशल की मीडिया की दुनिया में अब अपना भी जहां है..बात बाकी..कहानियां अधूरी है..जो तेरे आने तक पूरी नहीं होगी.....
कुमार मनीष
05-02-2013