शनिवार, 16 मार्च 2013

कभी थे चंबल के डकैत, स्वतंत्रता संग्राम में छुड़ा दिए अंग्रेजों के छक्के!

आजादी की पहली बिगुल 1857 में बजी। सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरोध में आवाज उठाई थी। इसे सिपाही विद्रोह या फिर भारतीय विद्रोह भी कहते हैं। यह विद्रोह दो सालों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। वैसे इस विद्रोह की शुरुआत छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों और आगजनी से हुआ था। लेकिन कुछ ही महीनों में इसने एक बड़ा रूप ले लिया। राजस्थान से लेकर उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश तक फैला चंबल का बीहड़ नामी डकैतों के लिए कुख्यात है। लेकिन आजादी के जंग में इस बीहड़ में रहने वाले डकैतों ने अहम भूमिका निभाई थी। ऐसे खूनी जंग की दास्तां। जिन्होंने अपना जीवन ही नहीं बल्कि सबकुछ न्यौछावर कर दिया इस भारत मां के लिए। आइए उनकी इस शहादत में हमलोग भी उन्हें सलाम करें।

डकैतों को बागी कहलाना पसंद: अब डकैतों को बागी कहलाना पसंद है। चंबल के बीहड़ों में आजादी की जंग 1909 से शुरू हुई थी। इससे पहले शौर्य, पराक्रम और स्वाभिमान का प्रतीक मानी जाने वाली बीहड़ की वादियां चंबल के पानी की तरह साफ सुथरी और शांत हुआ करती थी। चंबल में रहने वाले लोगों ने आजादी की लड़ाई लड़ाई में क्रांतिकारियों का साथ दिया। उन्होंने क्रांतिकारियों को छिपने का ठिकाना भी बनाया। बीहड़ों में रहने वाले डकैत कहे जाते हैं लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें बागी कहा। अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन में चंबल के किनारे बसी हथकान रियासत के हथकान थाने में सन 1909 में चर्चित डकैत पंचम सिंह पामर और मुस्कुंड के सहयोग से क्रांतिकारी पंडि़त गेंदालाल दीक्षित ने थाने पर हमला कर 21 पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया था।

कौन थे चंबल में रहने वाले: राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में बहने वाली चंबल के किनारे 450 वर्ग किमी फैले इन बीहड़ों में डकैत आज से नहीं आजादी से पहले भी हुआ करते थे। उन्हें पिंडारी कहा जाता था। ये मुगलकालीन में जमींदारों के वफादार सिपाही हुआ करते थे। जमींदार इनका इस्तेमाल किसी विवाद को निबटाने के लिए किया करते थे। मुगलकाल की समाप्ति के बाद अंग्रेजी शासन में चंबल के किनारे रहने वाले इन्हीं पिंडारियों ने वहीं डकैती डालना शुरू कर दिया और बचने के लिए चंबल की वादियों का रास्ता अपनाया। आजादी की इस जंग में हजारों घर बर्बाद हो गए। अंग्रेजों ने उनकी घरों में आग लगा दी। लेकिन इन डकैतों ने आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधे से मिलाकर क्रांतिकारियों ने साथ दिया।

सबसे पहले नसीराबाद से शुरू हुई विद्रोह:1857 के समय राजस्थान के कई राजपूत ब्रिटिश सरकार के खिलाफ थे। ये ब्रितानियों के शासन से संतुष्ट नहीं थे। जिससे इनके मन में सरकार के खिलाफ क्रांति की बीज उत्पन्न होने लगे। इन लोगों के साथ आम जनता भी शामिल हो गई। राजस्थान के कई इलाकों में इस विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। यहां से विद्रोह शुरू होने के पीछे मुख्य कारण यह था कि ब्रिटिश सरकार ने अजमेर की 15वीं बंगाल इंफेंट्री को नसीराबाद भेज दिया था। क्योंकि सरकार को इस पर विश्वास नहीं था। सरकार के इस निर्णय से सभी सैनिक नाराज हो गए और उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ क्रांति का आगाज कर दिया। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश सरकार ने बम्बई के सैनिकों को नसीराबाद में बुलवाया और पूरी सेना की जांच पड़ताल करने को कहा।

ब्रिटिश सरकार ने नसीराबाद में कई तोपें तैयार करवाई। इससे भी नसीराबाद के सैनिक नाराज हो गए और उन्होंने विद्रोह कर दिया। सेना ने कई ब्रितानियों को मौत के घाट उतार दिया साथ ही साथ उनकी सम्पत्ति को भी नष्ट कर दिया। इन सैनिकों के साथ अन्य लोग भी शामिल हो गए। नसीराबाद की घटना की खबर मिलते ही 3 जून 1857 को नीमच के विद्रोहियों ने कई ब्रितानियों को मौत के घाट उतार दिया। इसके फलस्वरूप ब्रितानियों ने भी बदला लेने की योजना बनाई। उन्होंने 7 जून को नीमच पर अपना अधिकार कर लिया। बाद में विद्रोही राजस्थान के दूसरे इलाकों की तरफ बढऩे लगे।

राजा के शासन से थे असंतुष्ट: जोधपुर के कुछ लोग राजा तख्त सिंह के शासन से असंतुष्ट थे। जिसके कारण एक दिन यहां के सैनिकों ने इनके खिलाफ विद्रोह कर दिया। उनके साथ आउवा के ब्रिटिश विरोधी कुशाल सिंह भी थे। कुशाल सिंह का सामना करने के लिए लेफ्टिनेंट हीथकोट के साथ जोधपुर की सेना आई थी। लेकिन कुशाल सिंह ने इन को परास्त कर दिया। बाद में ब्रितानी सेना ने आउवा के किले पर आक्रमण किया लेकिन उनको भी हार का मुंह देखना पड़ा। हालांकि ब्रिगेडियर होम्स उस पराजय का बदला लेना चाहता था। इसलिए उसने आउवा पर आक्रमण किया। जिससे कुशाल सिंह ने किले को छोड़ दिया और सलूम्बर चले गए। कुछ दिनों बाद ब्रितानियों ने आउवा पर अधिकार कर लिया और वहा आतंक फैलाया।

अंग्रेज क्रांतिकारियों से ज्यादा बागियों से थे परेशान: अंग्रेजों के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह थी की इनकी पहचान करना सहज नहीं था। क्योंकि इनका ठिकाना एक जगह नहीं था। ऐसे में अंग्रेज इन्हें नहीं पकड़ पाते थे। और ये अपने काम को अंजाम देने के बाद बड़ी सहजता पूर्वक निकल जाते थे। जिससे अंग्रेजी सिपाहियों को हर बार नाकामी ही मिलती थी। ऐसा कहा जा सकता है कि ये आंधी की तरह आते थे और तूफान की तरह निकल जाते थे।

मेवाड़ के सामंत ब्रितानियों व महाराणा से थे नाराज: मेवाड़ के सामंत ब्रितानियों व महाराणा से नाराज थे। इन सामंतों में आपसी फूट भी थी। महाराणा ने मेवाड़ के सामंतों को ब्रितानियों की सहायता करने की आज्ञा दी। इसी समय सलूम्बर के रावत केसरी सिंह ने उदयपुर के महाराणा को चेतावनी दी कि यदि आठ दिन में उनके परंपरागत अधिकार को स्वीकार न किया गया तो वह उनके प्रतिद्वंदी को मेवाड़ का शासक बना देंगे। सलूम्बर के रावत केसरी सिंह ने आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह को अपने यहां  यहां  शरण दी। इसी समय तात्या टोपे ने राजपूताने की ओर कूच किया। 1859 में नरवर के मान सिंह ने उसके साथ धोखा किया और उसे गिरफ्तार कर लिया। यद्यपि सामंतों ने प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार का विद्रोह नहीं किया परन्तु विद्रोहियों को शरण देकर इस क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

विद्रोही से मिले हैं कोटा महाराजा: ब्रिटिश अधिकारी मेजर बर्टन ने कोटा के महाराजा को बताया यहां के दो चार ब्रिटिश विरोधी अधिकारियों को ब्रिटिश सरकार को सौंप देना चाहिए। लेकिन महाराजा ने इस काम में असमर्थता जताई तो ब्रितानियों ने महाराजा पर आरोप लगाया कि वह विद्रोहियों से मिले हुए हैं। इस बात की खबर मिलते ही सैनिकों ने मेजर बर्टन को मार डाला। विद्रोहियों ने राजा के महल को घेर लिया, फिर राजा ने करौली के शासक से सैनिक सहायता मांगी। करौली के शासक ने सहयोग किया और विद्रोहियों को महल के पीछे खदेड़ा। इसी समय जनरल एचजी राबर्टसन अपनी सेना के साथ चंबल नदी के किनारे पहुंचा। उसे देखकर विद्रोही कोटा से भाग गए।

राज्य के अन्य क्षेत्रों में विद्रोह: इस विद्रोह में अलवर के कई नेताओं ने हिस्सा लिया। जयपुर में उस्मान खां और सादुल्ला खां ने विद्रोह कर दिया। टोंक में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया ओर नीमच के विद्रोहियों को टोंक आने का निमंत्रण दिया। इन्होंने टोंक के नवाब का घेरा डालकर उनसे बकाया वेतन वसूल किया। इसी तरह बीकानेर के शासक ने नाना साहब को सहायता का आश्वासन दिया था। और तात्या टोपे की सहायता के लिये दस हजार घुड़सवार सैनिक भेजे। यद्यपि राजस्थान के अधिकांश शासक पूरे विद्रोह काल में ब्रितानियों के प्रति वफादार रहे, फिर भी विद्रोहियों के दबाव के कारण उन्हें यत्र-तत्र विद्रोहियों को समर्थन प्रदान करना पड़ा।

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