गुरुवार, 30 नवंबर 2017

7 साल से अपने वारिस का इंतजार कर रही ये रियासत, खाली पड़ा है ताज


जयपुर। सात जनवरी, 2010 को बूंदी के महाराज कुमार रणजीत सिंह का निधन हुआ। उन्हें कोई संतान नहीं थी, न ही उन्होंने किसी को गोद लिया था। 21 जनवरी को पगड़ी दस्तूर होना था। बूंदी, अलवर ही नहीं सभी पूर्व राजघरानों को भी उत्सुकता थी पर एक राय नहीं बनी, तब से पगड़ी दस्तूर नहीं हुआ। अब तो लोकोक्ति बन गई है कि बूंदी की पाग खूंटी पर टंगी है। हाड़ा वंशजों के दिल में इस बात की कसक है।
छोटी काशी काे भी है पाग की चिंता
- राजे-रजवाड़े, राजघराने, रियासतें, राजतिलक बेशक अब प्रतीकभर हैं। संवैधानिक महत्व भले हो पर कई राजघराने अब भी दिलों पर राज करते हैं। राजतिलक जैसी परंपराओं का निर्वहन और पाग का सम्मान आज भी है। परंपराओं में जीने वाले छोटी काशी के लोगों के दिल में एक कसक है कि बूंदी की पाग सात साल से खूंटी पर टंगी है। संत-महंत तक सवाल करते हैं कि क्या हाड़ा वंश में कोई इसके काबिल नहीं? हाड़ाओं के दिल में भी यह टीस है। बाबा बजरंगदासजी (लाल लंगोट वाले) ने पिछले साल बूंदी आए मंत्री राजेंद्र राठौड़ से यही कहा था बूंदी की पाग कब तक खूंटी पर टंगी रहेगी? संत ब्रह्मलीन हुए तब भी लोग कहने लगे बूंदी अनाथ हो चुकी है।
विवाद इसलिए...
- राजघरानों में पाग और प्रॉपर्टी को लेकर विवाद नई बात नहीं, बूंदी राजघराना भी इससे अछूता नहीं। पूर्व महाराज रणजीतसिंह के कोई संतान नहीं थी, ना उन्होंने उत्तराधिकारी गोद लिया था। वे चचेरे भाई बलभद्रसिंह से नाराज थे। वसीयत में बलभद्रसिंह से अपने रिश्ते का जिक्र करते हुए लिखा कि उन्हें उनकी पार्थिव देह को हाथ नहीं लगाने दिया जाए। इच्छा के मुताबिक बलभद्रसिंह को मुखाग्नि नहीं दे सके। दूसरी वसीयत में रणजीतसिंह ने प्रॉपर्टी का हिस्सेदार अपनी बहन महेंद्रा कुमारी के पुत्र भंवर जितेंद्र दोस्त अविनाश चांदना को बताया। केस कोर्ट में है। बलभद्रसिंह बूंदी के पूर्व महाराज बहादुरसिंह के बड़े भाई केशरीसिंह के पुत्र हैं। महाराजा बहादुरसिंह के निधन के बाद उनके पुत्र रणजीतसिंह गद्दी पर बैठे। बलभद्रसिंह बहादुरसिंह के भतीजे और महाराजकुमार रणजीतसिंह के चचेरे भाई हैं। भंवर जितेंद्रसिंह महाराज रणजीतसिंह की बहन अलवर राजघराने की युवरानी महेंद्रा कुमारी के पुत्र हैं। वे बूंदी राजघराने के भांजे हैं और नरूका वंशज हैं जबकि पाग का दस्तूर हाड़ा वंशज को होता रहा है। बलभद्रसिंह का दावा है कि बूंदी राज परिवार की पाग के वे स्वाभाविक हकदार हैं। भान्जे भंवर जितेंद्र प्रॉपर्टी के मालिक हो सकते हैं पर पाग के नहीं।
पगड़ी चुकी थी, दस्तूर की तैयारी थी फिर ऐसा हुआ...धरी रह गई पाग
- सात जनवरी 2010 को महाराजकुमार रणजीतसिंह का निधन हुआ, 21 जनवरी को पगड़ी रस्म की तैयारी हो रही थी। वहां मौजूद लोगों के मुताबिक हिमाचल से भंवर जितेंद्रसिंह के ससुराल के लोग पाग लेकर बूंदी जा चुके थे। वहां मौजूद कोटा दरबार बृजराजसिंह ने उन्हें अंग्रेजी में कुछ ऐसा कुछ कहा कि वे पाग वापस ले गए। तब से पाग की रस्म नहीं हो सकी।

बुधवार, 22 नवंबर 2017

आखिर कहां की रहने वाली थी पद्मावती, क्या था गोरा और बादल से असल रिश्ता

जैसलमेर। पद्मावती जैसलमेर की राजकुमारी थी न कि श्रीलंका की। इसका दावा वरिष्ठ इतिहासकार नंदकिशोर शर्मा ने किया है। उन्होंने कहा पद्मावती को जैसलमेर की राजकुमारी हैं। इसके तथ्य भी दिए हैं। शर्मा का दावा है कि पद्मावती उर्फ पद्मिनी श्रीलंका की नहीं, जैसलमेर के निर्वासित महारावल पुण्यपाल की राजकुमारी थी। सिंहल लोद्रवा के महारावल बाछू के दूसरे पुत्र सिंहराव ने सिंध के रोहड़ी वर्तमान में पाकिस्तान से 8 कोस की दूरी पर सिंहरार नामक कस्बा को भाटियों ने आबाद किया था।
जैसलमेर के सेवग लक्ष्मीचंद की तवारिख पृष्ठ संख्या 26 के अनुसार सिंहरावों ने 24 गांव आबाद कर खेरात में सइयदों को दिया था। वह आज तक उनके पास है। सिंहराव भाटियों के इस कस्बे को सिहर कहा जाता था। सिहर ही सिंहल जो सिंघल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस क्षेत्र पर भाटियों के पूर्वजों का अधिकार था। भाटी सिद्ध रावल देवराज ने यहां पर विक्रम संवत 909 में देरावलगढ़ और राजधानी बनाया था।
गोरा और बादल पद्मिनी के चचेरे नहीं बल्कि ममेरे भाई थे
- मलिक मोहम्मद जायसी ने भी सिंहल लिखा है। 1955 में राजऋषि उम्मेदसिंह राठौड़ ने लिखा है कि राणा रतनसिंह का विवाह सिंहल देश की राजकुमारी पद्मिनी के साथ हुआ था। चित्तौड़ की माटी पर सन 1302 में रतनसिंह का विवाह पद्मिनी के साथ हुआ। पद्मिनी की मां चौहान थी व पिता भाटी थे। गोरा और बादल उसके चचेरे नहीं, बल्कि ममेरे भाई थे।
- पद्मिनी के पिता ने मेवाड़ के चित्तौड़ राणा रतनसिंह के पिता समरसिंह की आज्ञा से डोला भेजकर रतनसिंह से पद्मिनी का विवाह किया था। पुण्यपाल निर्वासित थे।
- ऐसी स्थिति में परम पद्मिनी का विवाह करना बड़ा कठिन हो गया था। उस समय अलाउद्दीन खिलजी हिंदू राजकुमारियों व रानियों का अपहरण कर रहे थे। ऐसी स्थिति में पूंगल के सिंहल क्षेत्र के भाटियों ने डोला भेजकर पद्मिनी का विवाह 1302 ईस्वी में रतनसिंह से करवाया था।
इतिहासकारों का दावा:
- पद्मावती को श्रीलंका की राजकुमारी बताने, रतनसिंह का उनको देखकर पद्मिनी पर मोहित होने, फिर उनसे विवाह का प्रस्ताव करने आदि जो दृश्य संजय लीला भंसाली द्वारा पद्मावती फिल्म में फिल्माये है, वे सभी तथ्य गलत और इतिहास से परे हैं।
- यहां के इतिहासकारों के अनुसार पूंगल गढ़ की पद्मिनी पूंगल क्षेत्र के सिंहल क्षेत्र की रहने वाली भाटियों की राजकुमारी थी। पद्मिनी जिसका पूंगल क्षेत्र में जन्म हुआ था। इसी कारण लोग उसे पूंगल की पद्मिनी कहते हैं। राजस्थान में कई लोक गीतों में पद्मिनी की उपमाएं दी जाती है। यदि वह लंका की होती, तो उसे श्याम वर्णी या श्याम सुंदरी कहा जाता।
रानी पद्मिनी का जैसलमेर से था संबंध
- इतिहासकार बालकृष्ण जोशी के मुताबिक, इतिहास के आधार पर यह बात बिलकुल सही है कि चितौडग़ढ़ की रानी पद्मिनी का जैसलमेर से संबंध था। मैने अपनी पुस्तक ‘स्वर्ण दुर्ग की आत्मकथा’ में भी इस बात का उल्लेख किया है। जैसलमेर के संस्थापक रावल जैसल के वंशज थे पुण्यपाल जिनका विवाह सिरोही के चौहान परिवार में हुआ था।
- पुण्यपाल को जैसलमेर की राजगद्दी से पदच्युत कर दिया था। इसके बाद वे जगह जगह भटके उसके बाद में पूंगल पर अधिकार प्राप्त किया। इसके बाद पद्मिनी के जन्म के समय पुण्यपाल पूंगल के रावल थे। उन्हीं की बेटी पद्मिनी थी। जिनका विवाह 15 साल की आयु में चितौडग़ढ़ के रावल रतनसिंह से विवाह किया गया।
- चितौडग़ढ़ की रानी पद्मिनी जैसलमेर मूल के भाटियों की बेटी तथा सिंहल के पहले सामंत व बाद में राजा की दोहित्री थी। जिसे पूंगल की पद्मिनी के नाम से भी जाना जाता है।
- पद्मिनी बेहद गुणवान और सुंदर औरत थी। औरत की सुंदरता को चार वर्णों में विभाजित किया जाता है। जो औरत नाक, नक्श, रूप, गुण रूप होती है उसे भी पद्मिनी की ही संज्ञा दी जाती है। पद्मिनी की संज्ञा भी चितौडग़ढ़ की रानी के नाम के आधार पर ही दी जाती है।
इतिहास के कई दोहों में पद्मिनी का वर्णन
शिक्षाविद् हरिवल्लभ बोहरा का कहना है कि हम लोग यह बात बचपन से जनश्रुति के रूप में सुनते आ रहे है कि पद्मिनी जैसलमेर मूल की थी। इनके पिता निष्कासित होने के बाद पूंगल के राजा बने। जैसलमेर की तवारिख में भी इस बात का जिक्र है। जैसलमेर के इतिहास के कई दोहों में पद्मिनी का वर्णन है।



आखिर कैसी थी पद्मावती? जानिए चित्तौड़ की रानी के 9 गुणों के बारे में

जयपुर। रानी पद्मावती को लेकर अलग-अलग मत हैं। अभी तक यही माना जाता रहा है कि पद्मावती का उल्लेख सबसे मलिक मोहम्मद जायसी ने अपनी रचना पद‌्मावत में किया था। लेकिन, इतिहास में इसके अलावा भी कुछ और है। कई तथ्यों को खोजने के बाद इतिहासकार पद्मावती को कोरी कल्पना नहीं मान रहे हैं।
मीरा शोध संस्थान से जुड़े चितौड़गढ़ के प्रो. सत्यनारायण समदानी बताते हैं कि जायसी की रचना 1540 की है। जायसी सूफी विचारधारा के थे, जो अजमेर दरगाह आया करते थे। इसी दौरान उन्होंने कवि बैन की कथा को सुना, जिसमें पद्मावती का उल्लेख था। इसका मतलब साफ है कि जायसी से पहले कवि हेतमदान की गोरा बादल कविता से भी जायसी ने अंश लिए थे।
क्या हकीकत में थी रानी
छिताई चरित : जायसी की पद्‌मावत से 14 साल पहले लिखी
प्रो.समदानी बताते हैं कि छिताई चरित ग्वालियर के कवि नारायणदास की रचना थी। इस हस्तलिखित ग्रंथ के संपादक ग्वालियर के हरिहरनाथ द्विवेदी आैर इनके अलावा अगरचंद नाहटा ने भी इसका रचनाकाल 1540 से पहले का माना है। अलाउदीन खिलजी देवगिरी पर आक्रमण किया था। वह वहां की रानी को पाना चाहता था। इस ग्रंथ के एक काव्य अंश में उल्लेख बताया गया है कि देवगिरी पर आक्रमण के समय अलाउद्‌दीन राघव चेतन को कहा है कि वह कहता है कि मैंने चित्तौड़ में पद्मावती के होने की बात सुनी। उवहां के राजा रतनसिंह को बंदी बनााया, लेकिन बादल उसे छुड़ा ले गया।
जायसी ने भी नहीं माना प्रेम प्रसंग, लिखा
पद्मावती बहुत सुंदर थीं, खिलजी बहक गया... सूफीकवि मलिक मोहम्मद जायसी ने 1540 ईस्वी में पद्मावत काव्य लिखा। जिसका अधिकांश किताबों में जिक्र आता है, लेकिन घटनाचक्र के सवा दो सौ साल बाद बाद काव्य रूप में लिखे जाने से कई लोग इसमें सच्चाई के साथ कल्पना का समावेश मानते हैं। उसने लिखा कि पद्मावती सुंदर थी। अल्लाउद्दीन ने उनके बारे में सुना तो देखना चाहा। खिलजी सेना ने चित्तौड़ को घेर लिया। रतन सिंह के पास संदेश भिजवाया- पद्मावती से मिलवाओ तो बिना हमला किए चितौड़ छोड़ दूंगा। रतन सिंह ने पद्मावती को बताया। रानी सहमत नहीं थीं। अंत में जौहर कर लिया।
पदमावती के 9 गुण
बुद्धिमानी
पंडित राघव को देश निष्कासन का दंड दिया था। तब रानी पद्मिनी राघव को अपना कंगन देती हैं। क्योंकि राघव पंडित गुणी विद्वान अनेक विधाओं के स्वामी थे। उन्होंने गुणी ब्राह्मण का अपमान नहीं किया।
वीरांगना
पद्मिनी वीर क्षत्राणी थी। वे गोरा-बादल के वीरत्व से परिचित थीं। इसी से उन्हें प्रेरणा देकर उनके वीरत्व को जागृत कर पति की बंधनमुक्ति और अपने सतीत्व की रक्षा का भार उन्हें सौंपती है।
नेतृत्व
रानियां महलों से बाहर नहीं आती थीं। पद्मिनी दरबार में युद्ध रणनीति बनाने में शामिल हुईं। रतनसिंह बंदी बना लिए तो युद्ध का नेतृत्व किया गढ़ में किसी भी परिस्थिति में उत्सर्ग के लिए तैयार रहने को प्रेरित किया।
रणनीतिकार
खिलजी के रणथंभौर पर आक्रमण के बाद मेवाड़ पर हमले की आशंका भांपकर रतनसिंह ने सभी सामंतों को बुलाकर युद्व की तैयारी शुरू कर दी थी। रानी भी इस रणनीति में शामिल थीं।
सतीत्व की रक्षा
पद्मिनी हिंदू नारी के गौरव का प्रतीक है। रतनसिंह को बंदी अवस्था में देवपाल और अल्लाउद्दीन के भेजे दूत की परीक्षा की अग्नि में तपकर उसका सतीत्व अखंड हो गया।
आदर्श पत्नी
मलिक मोहम्मद जायसी ने रानी पद्मिनी की जीवन को आधार बनाकर पद्मावत महाकाव्य की रचना की। जायसी ने आदर्श पत्नी के रूप में स्थापित किया। पद्मिनी भावी पति रतनसिंह से भेंट होने से लेकर जीवन पर्यंत उनके प्रति समर्पित रही।
स्वाभिमानी
पद्मिनी स्वाभिमानी नारी हैं। संकट में वे घबराई नहीं। पति की बंधन अवस्था में जब चित्तौड़ के सामंत और कुंवर उसे सुल्तान को सौंपकर राजा को छुड़ाने की योजना बनाते हैं तो वह अपनी बुद्धि से सफल योजना बनाती हैं।
निर्णय क्षमता
वे रणनीतिक निर्णय भी करती थीं। जब सुल्तान राणा रतनसिंह को बंदी बना ले गया तो पद्मिनी ने ही अपने विश्वस्त गोरा बादल से राय की। फिर 1600 बंद पालकियों में योद्धा बैठे। खबर फैलाई कि पद्मिनी सखियों के साथ रही हैं। सुल्तान से प्रार्थना की वे रानी को रतनसिंह से अंतिम भेंट करने दें। इससे प्रसन्न होकर सुल्तान ने आज्ञा दे दी। सैनिक रतनसिंह को छुड़ा लिया।
पवित्रता

पद्मिनी स्वयं में कुशल रणनीतिकार, साहसी और रूपवती होने के साथ पतिव्रता थीं। उनके सारे फैसले कदम इसी से प्रेरित थे। इतिहासकारों के मुताबिक उनके साहस की कहानी यह है कि आक्रांता अलाऊदीन खिलजी के महल में आने से पहले जौहर की तैयारी कर ली।



  • रणनीतिकार
    खिलजी के रणथंभौर पर आक्रमण के बाद मेवाड़ पर हमले की आशंका भांपकर रतनसिंह ने सभी सामंतों को बुलाकर युद्व की तैयारी शुरू कर दी थी। रानी भी इस रणनीति में शामिल थीं।
    सतीत्व की रक्षा
    पद्मिनी हिंदू नारी के गौरव का प्रतीक है। रतनसिंह को बंदी अवस्था में देवपाल और अल्लाउद्दीन के भेजे दूत की परीक्षा की अग्नि में तपकर उसका सतीत्व अखंड हो गया।

मंगलवार, 21 नवंबर 2017

इस महल में रहती थीं रानी पद्मावती, सबसे खूबसूरत रानियों का था घर

जयपुर।चित्तौड़गढ़.पद्मावती फिल्म की शूटिंग से शुरू हुआ विवाद रिलीज डेट पास आते ही और ज्यादा बड़ गया है। करणी सेना ने फिल्म की एक्ट्रेस की नाक काटने पर पांच करोड़ के इनाम देने की बात कही है। राजस्थान समेत देश के कई शहरों में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। शुक्रवार को चित्तौड़गढ़ किले को भी बंद रखा गया। जानें चित्तौड़गढ़ महल में बने पद्मिनी महल के बारे में। जानिए पद्मिनी महल की कहानी...
- अतुल्य जैन धर्म एवं गढ़ चित्तौड़गढ़ के लेखक डॉ ए.एल.जैन ने बताया कि अभी बना पद्मिनी पैलेस अंदर से रेनोवेट किया गया है। जिसे ऑरिजनल स्वरूप को करीब 150 साल पहले मलिक मोहम्मद जायसी के काव्य के अनुसार बदल दिया गया।
- डॉक्टर ए.एल.जैन के अनुसार रानी पद्मावती इसी महल में रहती थी। उनके साथ इस महल में रियासत की सबसे खूबसूरत महिलाएं रहती थीं। जिनमें से पद्मावती भी एक थीं।
- इसके साथ ही ए.एल.जैन ने बताया कि इस महल में लगे कांच रेनोवेशन के दौरान ही लगाए गए हैं। क्योंकि रानी पद्मावती का अक्स दिखाने वाली कहानी के कोई प्रमाण नहीं मिलते।
- बताया जा रहा है कि रानी पद्मिनी महल का उल्लेख 13वीं शताब्दी में राजा रतन सिंह के दौर से ही होता है। इससे पहले इसका उल्लेख नहीं होता।
- इस महल की सुंदरता बढ़ाने के लिए इसे पानी के बीच बनाया गया था। जिससे रानी पद्मावती पानी में अपना अक्स देख सकें। जिसके आर्किटेक्ट में राजस्थानी और पर्शियन कारीगरी देखने के लिए मिलती है।
मंदिर भी बनाया
- असल में राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में बने एक मंदिर में पद्मावती यानी पद्मिनी की प्रतिमा स्थापित है।
- उसी के स्वरूप से रानी का रूप दिखाया गया है। उनके जीवन के बारे में प्रतिमा मुखर होकर बोलती नजर आती है।
आखिर कैसे बना चित्तौड़गढ़ किला और क्या है इसका इतिहास...
- 700 एकड़ में फैला ये किला जमीन से 180 मीटर की ऊंचाई पर पहाड़ पर बना हुआ है। इससे जुड़ा मिथ है कि भीम ने इसका निर्माण किया था। सन् 1303 में इस किले पर अलाउद्दीन खिलजी ने अपना साम्राज्य स्थापित किया।
- 1540 में प्रताप का जन्म हुआ, उसी समय महाराणा उदयसिंह ने खोए चित्तौड़ को जीता। इस जीत के साथ ही किले में एक विजय स्तंभ की स्थापना की गई।
- इससे पहले इस किले पर गुहिलोत, सिसोदियाज, सूर्यवंशी और चातारी राजपूतों का राज रहा। इस जीत में प्रताप की मां जयवंता बाई भी उदयसिंह के साथ थीं।

गुप्त सुरंग से इस मंदिर में आती थी रानी पद्मावती, दिखती थीं कुछ ऐसी

जयपुर। चित्तौड़गढ़ की रानी पद्मावती को लेकर विवाद पूरे देश में फैल चुका है। सभी धर्म के लोग पद्मावती फिल्म के विरोध में प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन आज भी राजस्थान में उन्हें देवी की तरह पूजा जाता है। असल में राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में बने एक मंदिर में पद्मावती यानी पद्मिनी की प्रतिमा स्थापित है। इस मंदिर में देवी के स्वरूप में रानी का रूप दिखाया गया है। ये मुर्ति उनके जीवन के बारे में प्रतिमा मुखर होकर बोलती नजर आती है। इस मंदिर के पुजारी चंद्रशेखर ने बताया कि इस मंदिर में सन 1468 में राणा रायमल ने पद्मावती की मूर्ति की स्थापना करवाई थी। खुद चंद्रशेखर का परिवार 7 पीढ़ियों से इस मंदिर की पूजा कर रहा है।
- इसमें भगवान पाश्वनाथ और महादेव की मूर्ति भी स्थापित है। पुजारी चंद्रशेखर ने बताया कि मंदिर में बने गो मुख से 24 घंटे पानी गिरता है। जिसे उन्होंने कभी बंद होते नहीं देखा।
- इस मंदिर में ब्राह्मण समाज के लोग पूजा करने आते हैं।
मूर्ति में क्या है खास
- पुजारी चंद्रशेखर ने बताया कि इस मंदिर में पद्मावती की जो मूर्ति लगी है। उसमें मूर्ति बनाने वाले ने पद्मावती को कल्पना करते दिखाया गया है। चंद्रशेखर के अनुसार हाथ में आईना लिए मूर्ति ये सोच रही है कि किसी को इतना भी सुंदर मत बनाना कि उसकी वजह से राज्य तबाह हो जाए।
महल से सीधी आती थी सुरंग
- पुजारी चंद्रशेखर ने बताया कि इस मंदिर में 1.5 किलोमीटर की एक सुरंग भी है। जो रानी पद्मावती के पद्मिनी महल से सीधे इस मंदिर में पहुंचती है। जिसे फिलहाल बंद कर दिया गया है।
- कहा जाता है कि रानी पद्मावती सुबह स्नान के बाद सुरंग के जरिए सीधे इस मंदिर में पूजा करने पहुंचती थीं। सुरंग को खास इसलिए बनाया गया था जिससे कोई पद्मावती को आते-जाते ना देख सके।


गुरुवार, 4 मई 2017

जोधपुर को राजस्थान का अभिन्न अंग बनाने के लिए लोह पुरुष ने तान दी जोधपुर नरेश पर पिस्टल


जयपुर। 200 साल। अत्याचार। ब्रिटिश साम्राज्य। पूरे भारत में विरोध प्रदर्शन। अंग्रेजी हुकूमत यह मान चुकी थी अब यहां शासन करना आग से खेलने के बराबर है। लेकिन भारत छोडऩे से पहले अंग्रेजों ने कूटनीति अपनाई। भारत को दो हिस्सों में बांट डाला। वर्ष 1949। आजादी का जश्न। चारों ओर खुशी का माहौल। इन बीच एक अजीब सा सन्नाटा फैला था। आजाद होने के बावजूद अपनों के बीच में भी अजनबी जैसी स्थिति थी। अब रियासतों का एकीकरण कर एक राज्य बनाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। ताकि एक संपूर्ण भारत की स्थापना की जा सके।

ऐसे में राजस्थान राज्य की नींव रखी गई। जयपुर और जोधपुर को छोड़कर बाकी रियासतें राजस्थान में शामिल हो चुकी थी। या फिर हामी भर चुकी थी। बीकानेर और जैसलमेर रियासतें जोधपुर नरेश की हां पर टिकी हुई थी। जबकि जोधपुर नरेश महाराजा हनुवंत सिंह जिन्ना के संपर्क में थे। जिन्ना ने उन्हें प्रलोभन दिया अगर आप पाकिस्तान में शामिल होते हैं तो पंजाब-मारवाड़ के सूबे का प्रमुख बना दिए जाएंगे। उस समय जोधपुर से थार के रास्ते लाहौर तक एक रेल लाइन हुआ करती थी। जिसे सिंध और राजस्थान की रियासतों के बीच प्रमुख व्यापार हुआ करता था। जिन्ना ने रेल लाइन को जोधपुर के कब्जे का प्रलोभन भी दिया। हनुवंत सिंह जिन्ना की इस प्रलोभन में पूरी तरह से फंस गए थे। उन्होंने हामी भी भर दी।

इस बात की जानकारी सरदार बल्लभ भाई पटेल को लगी। उस समय पटेल जूनागढ़ (तत्कालीन बम्बई और वर्तमान में गुजरात) के मुस्लिम राजा को समझा रहे थे। वे हेलिकॉप्टर से जोधपुर के लिए रवाना हो गए। लेकिन सिरोही-आबू के पास उनका हेलिकॉप्टर खराब हो गया। ऐसे में उसी दिन जोधपुर पहुंचना मुश्किल था। क्योंकि सन साधनों की काफी कमी थी। स्थानीय साधनों से सफर कर रात में जोधपुर के उम्मेद भवन पहुंचे। यहां सरदार बल्लभ भाई पटेल को देखकर हनुवंत सिंह घबरा से गए। उन्होंने आसपास के सामंतों को बुला लिया। बातचीत के दौरान हनुवंत सिंह ने सरदार को धमकाने के लिए मेज पर ब्रिटिश पिस्टल रख दी। सरदार ने जोधपुर नरेश को मुस्लिम राष्ट्र में शामिल होने पर होने वाली सारी तकलीफों के बारे में बताया लेकिन हनुवंत सिंह नहीं माने। उलटे सरदार पर राठौड़ों को डराने का आरोप लगाकर आसपास बैठे सामंतों को उकसाने लगे।

एक बार स्थिति ऐसी आ गई कि आखिरकार सरदार ने पिस्टल उठा ली और हनुवंत की तरफ तानकर कहा कि राजस्थान में विलय पर हस्ताक्षर कीजिए नहीं तो आज हम दो सरदारों में से एक सरदार नहीं बचेगा। सचिव मेनन सहित उपस्थित सभी सामंत डर गए। ऐसे में हनुवंत सिंह को हस्ताक्षर करने पड़े। इस तरह जोधपुर सहित बीकानेर और जैसलमेर भी राजस्थान में शामिल हो गए। इस घटना के कारण सरदार पटेल ने वृहद राजस्थान के प्रथम महाराज प्रमुख का पद हनुवंत सिंह को न देकर उदयपुर के महाराणा भूपालसिंह को दिया।

बुधवार, 26 अप्रैल 2017

क्या आप जानते हैं कि एक लाख वर्ष पुरानी है राजस्थान की सभ्यता

पुरातत्वों और इतिहासकारों के अनुसार राजस्थान का इतिहास पूर्व पाषणकाल में ही शुरू हुआ, बनास नदी के किनारे और अरावली पहाड़ के गर्भ में बसा था यह क्षेत्र

जयपुर। राजस्थान। यहां की सभ्यता और संस्कृति काफी पुरानी ही नहीं बल्कि एक लाख वर्ष पहले इसका आगाज भी हो गया था। पुरातत्ववेताओं के अनुसार राजस्थान सभ्यता की शुरुआत पूर्व पाषणकाल में ही हो गई थी। आज से करीब एक लाख पहले मानव नदी किनारे या फिर पहाड़ की कदराहों में निवास करता था। इतिहासकारों के अनुसार ये मुख्य तय बनास नदी के किनारे या फिर अरावली के उस पार की नदियों के किनारे निवास करते थे। हालांकि भोजन उनके लिए बड़ी समस्या थी। ऐसे में वे एक जगह स्थिर नहीं रह पाते थे। वे पत्थर के औजारों की मदद से शिकार करते थे। इसका प्रमाण इन औजारों के कुछ नमूने बैराठ, रैध और भानगढ़ के आसपास पाए गए हैं।

क्या आदिकाल से ऐसा ही था राजस्थान: राजस्थान का इतिहास किसी रहस्य से कम नहीं है। पुरातत्ववेताओं और इतिहासकारों के अनुसार राजस्थान का उत्तर-पश्चिमी में मरुस्थल नहीं था जैसा आज है। इनका मनना है कि यहां अतिप्राचीनकाल में सरस्वती और दृशद्वती जैसी विशाल नदियां बहा करती थीं। ऐसे भी साक्ष्य मिले है। जो इतिहास के पन्नों पर एक पहचान रखती है। या फिर जिसकी सभ्यता आज भी किसी विकसित शहर से तुल्ला की जाती है। हड़प्पा और रंगमहल जैसी संस्कृतियां इन नदी घाटियों में फली-फूलीं हैं। यहां की गई खुदाइयों से खासकर कालीबंग के पास, पांच हजार साल पुरानी एक विकसित नगर सभ्यता का पता चला है। हड़प्पा और रंगमहल संस्कृतियां सैकडों किलोमीटर दक्षिण तक राजस्थान के एक बहुत बड़े इलाके में फैली हुई थीं।

गणराज्यों में बंटा हुआ था ईसा पूर्व चौथी सदी में: इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि ईसा पूर्व चौथी सदी और उसके पहले यह क्षेत्र कई छोटे-छोटे गणराज्यों में बंटा हुआ था। इनमें से दो गणराज्य मालवा और सिवि इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने सिकंदर जैसे महान शासक को पंजाब से सिंध की ओर लौटने के लिए बाध्य कर दिया था। उस समय उतरी बीकानेर पर एक गणराज्यीय योद्धा कबीले यौधेयत का अधिकार था। यह वही ब्रह्मावर्त है जिसकी महती चर्चा मनु ने की है। इसका उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। महाभारत में उल्लेखित है मत्स्य पूर्वी राजस्थान और जयपुर के एक बड़े हिस्से पर शासन करते थे। जयपुर से 80 किमी उत्तर में बैराठ, जो तब विराटनगर कहलाता था, उनकी राजधानी थी। इस क्षेत्र की प्राचीनता का पता अशोक के दो शिलालेखों और चौथी पांचवी सदी के बौद्ध मठ के भनावशेषों से भी चलता है।

काफी समृद्ध इलका था राजस्थान
: भरतपुर, धौलपुर और करौली उस समय सूरसेन जनपद के अंश थे जिसकी राजधानी मथुरा थी। भरतपुर के नोह नामक स्थान में अनेक उतर-मौर्यकालीन मूर्तियां और बर्तन खुदाई में मिले हैं। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि कुषाणकाल तथा कुषाणोतर तृतीय सदी में उतरी एवं मध्यवर्ती राजस्थान काफी समृद्ध इलाका था। राजस्थान के प्राचीन गणराज्यों ने अपने को पुनस्र्थापित किया और वे मालवा गणराज्य के हिस्से बन गए। मालवा गणराज्य हूणों के आक्रमण के पहले काफी स्वायत् और समृद्ध था। अंततघ् छठी सदी में तोरामण के नेतृतव में हूणों ने इस क्षेत्र में काफी लूट-पाट मचाई और मालवा पर अधिकार जमा लिया। लेकिन फिर यशोधर्मन ने हूणों को परास्त कर दिया और दक्षिण पूर्वी राजस्थान में गुप्तवंश का प्रभाव फिर कायम हो गया। सातवीं सदी में पुराने गणराज्य धीरे-धीरे अपने को स्वतंत्र राज्यों के रूप में स्थापित करने लगे। इनमें से मौर्यों के समय में चितौड़ गुबिलाओं के द्वारा मेवाड़ और गुर्जरों के अधीन पश्चिमी राजस्थान का गुर्जरात्र प्रमुख राज्य थे।