शनिवार, 18 अप्रैल 2015

चीन के बाद ये है विश्व की दूसरी सबसे बड़ी दीवार, एक साथ दस घोड़े दौड़ सकते

जयपुर। दुनिया में सबसे लंबी दीवार का खिताब चीन के पास है लेकिन बहुत कम लोग ही शायद इस बात से वाकिफ हों कि दुनिया की दूसरी सबसे लंबी दीवार राजस्थान में स्थित है। यह दीवार राजस्थान के अभेद्य माने जाने वाले कुंभलगढ़ किले की सुरक्षा के लिए बनाई गई थी। कुंभलगढ़ किले का निर्माण राजा कुंभा ने करवाया था। यह किला राजस्थान के उन 6 किलों में से एक है जो वर्ल्ड हेरिटेज की सूची में शामिल हैं। इस किले के चारो तरफ बनी इस दीवार को भेदने की कोशिश महान राजा अकबर ने भी किया, लेकिन भेद न सके। इस दीवार की मोटाई इतनी है कि उस पर 10 घोड़े एक साथ दौड़ सकते हैं।
कैसे बनी ये 36 किलोमीटर लंबी दीवार
किले के दीवार की निर्माण से जुड़ी कहानी बहुत ही दिलचस्प है। 1443 में इसका निर्माण शुरू किया गया। दरअसल, इस दीवार का काम इसलिए करवाया जा रहा था ताकि विरोधियों से सुरक्षा हो सके। लेकिन किले के निर्माण में दीवार का बनना बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी। ऐसा माना जाता है कि अंतत: वहां की देवी के आह्वान पर एक संत की बलि दी गई फिर जाकर इस दीवार का निर्माण कार्य पूरा हो पाया।
इस किले के लिए चढ़ाई गई संत की बलि
देवी कुछ और ही चाहती हैं। राजा इस बात पर चिंतित हो गए और एक संत को बुलाया और पूरी कहानी सुनाकर इसका हल पूछा। संत ने बताया कि देवी इस काम को तभी आगे बढ़ने देंगी जब स्वेच्छा से कोई मानव बलि के लिए खुद को प्रस्तुत करे। राजा इस बात से चिंतित होकर सोचने लगे कि आखिर कौन इसके लिए आगे आएगा। तभी संत ने कहा कि वह खुद बलिदान के लिए तैयार है और इसके लिए राजा से आज्ञा मांगी।
जहां गिरा संत का सिर वहां बना मुख्य द्वार
संत ने कहा कि उसे पहाड़ी पर चलने दिया जाए और जहां वो रुके वहीं उनकी बलि चढ़ा दी जाए और वहां एक देवी का मंदिर बनाया जाए। ठीक ऐसा ही हुआ और वह कुछ किलोमीटर तक चलने के बाद रुक गया और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। जहां पर उसका सिर गिरा वहां मुख्य द्वार है और जहां पर उसका शरीर गिरा वहां दूसरा मुख्य द्वार है। यह किला चारो तरफ से अरावली की पहाड़ियों की मजबूत ढाल द्वारा सुरक्षित है।
चीन के बाद सबसे लंबी दीवार
इसका निर्माण पंद्रहवी सदी में राणा कुंभा ने करवाया था। पर्यटक किले के ऊपर से आसपास के रमणीय दृश्यों का आनंद ले सकते हैं। शत्रुओं से रक्षा के लिए इस किले के चारों ओर दीवार का निर्माण किया गया था। ऐसा कहा जाता है कि चीन की महान दीवार के बाद यह सबसे लंबी दीवार है। यह किला 1,914 मीटर की ऊंचाई पर समुद्र स्तर से परे क्रेस्ट शिखर पर बनाया गया है। इस किले के निर्माण को पूरा करने में 15 साल का समय लागा। दुर्ग की विशालता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह किसी एक पहाड़ी पर बना हुआ नहीं है, बल्कि इसे कई घाटियों और पहाड़ियों को मिलाकर गढ़ा गया है।
 
दस घोड़े एक साथ दौड़ते है इसके दीवार पर
महाराणा कुंभा के रियासत में कुल 84 किले आते थे जिसमें से 32 किलों का नक्शा उसके द्वारा बनवाया गया था। कुंभलगढ़ भी उनमें से एक है। इस किले की दीवार की चौड़ाई इतनी ज्यादा है कि 10 घोड़ एक ही समय में उसपर दौड़ सकते हैं। वहीं, चीन की दीवार पर एक साथ केवल 5 घोड़े दौड़ सकते हैं। एक मान्यता यह भी है कि महाराणा कुंभा अपने इस किले में रात में काम करने वाले मजदूरों के लिए 50 किलो घी और 100 किलो रूई का प्रयोग करते थे।
सुरक्षा ऐसी कि परिंदा भी न मार सके पैर
सुरक्षा को मद्देनजर इस दुर्ग में ऊंचे स्थानों पर महल, मंदिर व आवासीय इमारतें बनायीं गई और समतल भूमि का उपयोग कृषि कार्य के लिए किया गया। वहीं, ढलान वाले भागों का उपयोग जलाशयों के लिए कर इस दुर्ग को यथासंभव स्वावलंबी बनाया गया। इस दुर्ग के भीतर एक और गढ़ है जिसे कटारगढ़ के नाम से जाना जाता है यह गढ़ सात विशाल द्वारों व सुदृढ़ प्राचीरों से सुरक्षित है।
सिर्फ एक बार छाया किले पर हार का साया
कुंभलगढ़ को अपने इतिहास में सिर्फ एक बार हार का सामना करना पड़ा जब मुगल सेना ने किले की तीन महिलाओं को जान से मारने की धमकी देकर अंदर प्रवेश करने का रास्ता पूछा। महिलाओं ने डर से एक गुप्त द्वार बताया, लेकिन इसके बाद भी मुगल अंदर जाने में सफल नहीं हो पाए। एक बार फिर अकबर के बेटे सलीम ने भी इस किले पर फतह करने की सोची, लेकिन उसे भी खाली हाथ वापस लौटना पड़ा।
धोखा देने पर चुनवा दिया दीवार में
कुछ समय बाद जब राजा को उस महिलाओं के बारे में पता चला तो उन्होंने तीनों को किले के द्वार पर दीवार में जिंदा चुनवा दिया। ऐसा कर राजा ने लोगों को यह संदेश दिया कि राज्य के सुरक्षा के साथ जो भी खिलवाड़ करेगा उसका यही अंजाम होगा।
यहां का लाइट और साउंड शो है सबसे फेमस
किले के अंदर प्रवेश के लिए सात द्वार बने हुए हैं जिसमें, राम द्वार, पग्र द्वार, हनुमान द्वार आदि फेमस हे। इस किले के अंदर कुल 360 मंदिरों का समूह है जिसमें, 300 जैन मंदिर और 60 हिन्दू मंदिर हैं। इनमें से नीलकंठ महादेव के मंदिर का महत्व अन्य मंदिरों से ज्यादा है। इस मंदिर के पास देर शाम होने वाले लाइट और साउंड शो की अपनी एक अलग पहचान है। इस शो में बेहदखूबसूरती से कुंभलगढ़ किला के पूरे इतिहास के बारे में बताया जाता है। चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़, घोड़ों के दौडऩे और बंदूकों की गोलियों की आवाज आज भी लोगों को प्रचीन समय का आभास कराता है।

जिसे कोई और न मार सका उसके बेटे ने ही ले ली जान
महाराणा प्रताप की जन्म स्थली कुंभलगढ़ एक तरह से मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी रहा है। महाराणा कुंभा से लेकर महाराणा राज सिंह के समय तक मेवाड़ पर हुए आक्रमणों के समय राजपरिवार इसी दुर्ग में रहा। यहीं पर पृथ्वीराज और महाराणा सांगा का बचपन बीता था। जिन महाराणा कुंभा को कोई नहीं हरा सका, उन्हें उन्हीं के पुत्र उदयकर्ण ने राजलिप्सा के लिए मार डाला। महाराणा के ज्येष्ठ पुत्र उदयसिंह को ऊदा के नाम से भी जाना जाता है। ऊदा ने यहीं एक कुंड के पास पिता कुंभा की हत्या कर दी थी।
इसे बनाते समय रखा गया वास्तु शास्त्र का ध्यान
वास्तु शास्त्र के नियमानुसार बने इस दुर्ग में प्रवेश द्वार, प्राचीर,जलाशय, बहार जाने के लिए संकटकालीन द्वार, महल, मंदिर, आवासीय इमारते, यज्ञ वेदी, स्तम्भ, छत्रियां आदि बने है।

नीलकंठ महादेव मंदिर
नीलकंठ महादेव मंदिर, कुंभलगढ़ किले के पास स्थित है। इस मंदिर में पत्थर से बना हुआ छह फुट का शिवलिंग है। यह पवित्र स्थल भगवान शिव को समर्पित है, जो कि इस क्षेत्र के मुख्य देवता हैं। इतिहास के अनुसार राजा राणा कुंभा इस देवता की पूजा करते थे।
हरियाली में है गजब
उदयपुर के निकट यह कुंभलगढ़ अभ्यारण्य, चार सींगों वाले हिरन या चौसिंघा, काला तेंदुआ,जंगली सूअर, भेड़ियों, भालू, सियार, सांभर हिरन, चिंकारा, तेंदुओं,लकड़बघ्घों, जंगली बिल्ली, नीलगाय और खरगोश देखने के लिए आदर्श स्थल है। राज्य में केवल इस अभ्यारण्य में ही पर्यटक भेड़ियों को देख सकते हैं।
इस महल में बिना एसी के ही बनी रहती है ठंढक
बादल महल को ‘बादलों के महल' के नाम से भी जाना जाता है। इसकी खासियत है इसकी अद्भुत बनावट। इसमें इसमें बिना एयर कंडिशन के ठंड का अहसास होता है। यह कुंभलगढ़ किले के शीर्ष पर स्थित है। इस महल में दो मंजिलें हैं एवं यह संपूर्ण भवन दो आतंरिक रूप से जुड़े हुए खंडों, मर्दाना महल और जनाना महल में विभाजित हैं। इस महल के कमरों को पेस्टल रंगों के भित्ति चित्रों के साथ चित्रित किया गया है जो उन्नीसवीं शताब्दी के काल को प्रदर्शित करते हैं। फिरोजी, हरा एवं सफेद इन भव्य कमरों के मुख्य रंग हैं।
इस मंदिर में दिखती है धन के देवता कुबेर की छवि
मम्मदेव मंदिर का निर्माण राजा राणा कुंभा ने वर्ष 1460 में करवाया था। यह तीर्थ कुंभलगढ़ किले के नीचे स्थित है और इसमें चार तख्ते हैं। पर्यटक तख्तों पर खुदे हुए शिलालेख देख सकते हैं जो मेवाड़ का इतिहास बताते हैं। यहां इतिहास गुहिल के काल से प्रारंभ होकर राणा कुंभा के समय तक लिखा गया है। गुहिल मेवाड़ के संस्थापक थे। वर्तमान में ये तख्ते उदयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित रूप से रखे हुए हैं। पर्यटक मंदिर के भीतर धन के देवता कुबेर की छवि एवं दो कब्रों को देख सकते हैं।
परशुराम मंदिर
परशुराम मंदिर एक प्राचीन गुफा के अंदर स्थित है एवं प्रसिद्ध संत परशुराम को समर्पित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार संत परशराम ने भगवान राम का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए यहां तपस्या की थी। पर्यटकों को गुफा तक पहुंचने के लिए 500 सीढियां उतरनी पड़ती हैं।
 
घूमने के लिए फुल पैकेज है कुंभलगढ़
कुंभलगढ़ अपने शानदार महलों के अतिरिक्त कई प्राचीन मंदिरों के लिए भी प्रसिद्ध है। उनमें से वेदी मंदिर, नीलकंठ महादेव मंदिर, मुच्छल महादेव मंदिर, परशुराम मंदिर, मम्मादेव मंदिर और रणकपुर जैन मंदिर इस पर्यटन स्थल के मुख्य पवित्र स्थल हैं।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015


 
जयपुर। यूं तो भारत में हनुमानजी के लाखों मंदिर हैं। हर मंदिर पर भक्तों की भीड़ उमड़ती है, पर राजस्थान के दौसा जिला स्थित घाटा मेंहदीपुर बालाजी की बात ही अलग है। मेंहदीपुर बालाजी को दुष्ट आत्माओं से छुटकारा दिलाने के लिए दिव्य शक्ति से प्रेरित हनुमानजी का बहुत ही शक्तिशाली मंदिर माना जाता है। यहां कई लोगों को जंजीर से बंधा और उलटे लटके देखा जा सकता है। यह मंदिर और इससे जुड़े चमत्कार देखकर कोई भी हैरान हो सकता है। शाम के समय जब बालाजी की आरती होती है तो भूत-प्रेत से पीड़ित लोगों को जूझते देखा जाता है।

जंजीर में बांधकर लाए जाते हैं पीड़ित
कहा जाता है कि कई सालों पहले हनुमानजी और प्रेत राजा अरावली पर्वत पर प्रकट हुए थे। बुरी आत्माओं और काले जादू से पीड़ित रोगों से छुटकारा पाने लोग यहां आते हैं। इस मन्दिर को इन पीड़ाओं से मुक्ति का एकमात्र मार्ग माना जाता है। मंदिर के पंडित इन रोगोंं से मुक्ति के लिए कई उपचार बताते हैं। शनिवार और मंगलवार को यहां आने वाले भक्तों की संख्या लाखों में पहुंच जाती है। कई गंभीर रोगियों को लोहे की जंजीर से बांधकर मंदिर में लाया जाता है। यहां आने वाले पीडित लोगों को देखकर सामान्य लोगों की रूह तक कांप जाती है। ये लोग मंदिर के सामने ऐसे चिल्ला-चिल्ला के अपने अंदर बैठी बुरी आत्माओं के बारे में बताते हैं, जिनके बारे में इनका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं रहता है। भूत-प्रेत ऊपरी बाधाओं के निवारणार्थ यहां आने वालों का तांता लगा रहता है। ऐसे लोग यहां पर बिना दवा और तंत्र-मंत्र के स्वस्थ होकर लौटते हैं।
बादशाहों ने मूर्ति को नष्ट करने की थी कोशिश
कहा जाता है कि मुस्लिम शासनकाल में कुछ बादशाहों ने इस मूर्ति को नष्ट करने का प्रयास किया। हर बार ये बादशाह असफल रहे। वे इसे जितना खुदवाते गए मूर्ति की जड़ उतनी ही गहरी होती चली गई। थक हार कर उन्हें अपना यह कुप्रयास छोड़ना पड़ा। ब्रिटिश शासन के दौरान सन 1910 में बालाजी ने अपना सैकड़ों वर्ष पुराना चोला स्वतः ही त्याग दिया। भक्तजन इस चोले को लेकर समीपवर्ती मंडावर रेलवे स्टेशन पहुंचे, जहां से उन्हें चोले को गंगा में प्रवाहित करने जाना था। ब्रिटिश स्टेशन मास्टर ने चोले को निःशुल्क ले जाने से रोका और उसका लगेज करने लगा, लेकिन चमत्कारी चोला कभी मन भर ज्यादा हो जाता और कभी दो मन कम हो जाता। असमंजस में पड़े स्टेशन मास्टर को अंततः चोले को बिना लगेज ही जाने देना पड़ा और उसने भी बालाजी के चमत्कार को नमस्कार किया। इसके बाद बालाजी को नया चोला चढ़ाया गया। एक बार फिर से नए चोले से एक नई ज्योति दीप्यमान हुई।
प्रेतराज सरकार और कोतवाल कप्तान के मंदिर
बालाजी महाराज के अलावा यहां श्री प्रेतराज सरकार और श्री कोतवाल कप्तान ( भैरव) की मूर्तियां भी हैं। प्रेतराज सरकार जहां दंडाधिकारी के पद पर आसीन हैं। वहीं, भैरव जी कोतवाल के पद पर। यहां आने पर ही मालूम चलता है कि भूत और प्रेत किस तरह से मनुष्य को परेशान करते हैं। दुखी व्यक्ति मंदिर में आकर तीनों देवगणों को प्रसाद चढाना पड़ता है। बालाजी को लड्डू प्रेतराज सरकार को चावल और कोतवाल कप्तान (भैरव) को उड़द का प्रसाद चढ़ाया जाता है। इस प्रसाद में से दो लड्डू रोगी को खिलाए जाते हैं। शेष प्रसाद पशु पक्षियों को डाल दिया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि पशु पक्षियों के रूप में देवताओं के दूत ही प्रसाद ग्रहण कर रहे होते हैं। कुछ लोग बालाजी का नाम सुनते ही चैंक पड़ते हैं। उनका मानना है कि भूतप्रेतादि बाधाओं से ग्रस्त व्यक्ति को ही वहां जाना चाहिए। ऐसा सही नहीं है। कोई भी व्यक्ति जो बालाजी के प्रति भक्तिभाव रखता है , इन तीनों देवों की आराधना कर सकता है। अनेक भक्त तो देश-विदेश से बालाजी के दरबार में मात्र प्रसाद चढ़ाने नियमित रूप से आते हैं।
प्रसाद खाते ही झूमने लगते हैं पीड़ित लोग
प्रसाद का लड्डू खाते ही रोगी व्यक्ति झूमने लगता है। भूत प्रेतादि स्वयं ही उसके शरीर में आकर चिल्लाने लगते हैं। कभी वह अपना सिर धुनता है कभी जमीन पर लोटने लता है। पीड़ित लोग यहां पर अपने आप जो करते हैं वह एक सामान्य आदमी के लिए संभव नहीं है। इस तरह की प्रक्रियाओं के बाद वह बालाजी की शरण में आ जाता है फर उसे हमेशा के लिए इस तरह की परेशानियों से मुक्ति मिल जाती है। बालाजी महाराज के मंदिर में प्रातः और सायं लगभग चार चार घंटे पूजा होती है। 
श्री प्रेतराज सरकार
बालाजी मंदिर में प्रेतराज सरकार दण्डाधिकारी पद पर आसीन हैं। प्रेतराज सरकार के विग्रह पर भी चोला चढ़ाया जाता है। प्रेतराज सरकार को दुष्ट आत्माओं को दण्ड देने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है। भक्तिभाव से उनकी आरती , चालीसा, कीर्तन, भजन आदि किए जाते हैं। बालाजी के सहायक देवता के रूप में ही प्रेतराज सरकार की आराधना की जाती है। प्रेतराज सरकार को पके चावल का भोग लगाया जाता है। भक्तजन प्रायः तीनों देवताओं को बूंदी के लड्डुओं का ही भोग लगाते हैं।
कोतवाल कप्तान श्री भैरव देव
कोतवाल कप्तान श्री भैरव देव भगवान शिव के अवतार हैं और उनकी ही तरह भक्तों की थोड़ी-सी पूजा-अर्चना से ही प्रसन्न भी हो जाते हैं। भैरव महाराज चतुर्भुजी हैं। उनके हाथों में त्रिशूल , डमरू, खप्पर तथा प्रजापति ब्रह्मा का पांचवां कटा शीश रहता है। वे कमर में बाघाम्बर नहीं , लाल वस्त्र धारण करते हैं। वे भस्म लपेटते हैं। उनकी मूर्तियों पर चमेली के सुगंध युक्त तिल के तेल में सिन्दूर घोलकर चोला चढ़ाया जाता है।
इसलिए कहा जाता है कोतवाल कप्तान
शास्त्र और लोक कथाओं में भैरव देव के अनेक रूपों का वर्णन है, जिनमें एक दर्जन रूप प्रामाणिक हैं। श्री बाल भैरव और श्री बटुक भैरव, भैरव देव के बाल रूप हैं। भक्तजन प्रायः भैरव देव के इन्हीं रूपों की आराधना करते हैं। भैरव देव बालाजी महाराज की सेना के कोतवाल हैं। इन्हें कोतवाल कप्तान भी कहा जाता है। बालाजी मन्दिर में आपके भजन, कीर्तन, आरती और चालीसा श्रद्धा से गाए जाते हैं। प्रसाद के रूप में आपको उड़द की दाल के वड़े और खीर का भोग लगाया जाता है। किन्तु भक्तजन बूंदी के लड्डू भी चढ़ा दिया करते हैं । सामान्य साधक भी बालाजी की सेवा-उपासना कर भूतप्रेतादि उतारने में समर्थ हो जाते हैं। इस कार्य में बालाजी उसकी सहायता करते हैं। वे अपने उपासक को एक दूत देते हैं , जो नित्य प्रति उसके साथ रहता है।
 
 
 
 
 
 

एक रात में तैयार हुई थी ये बावड़ी, इसकी गुफा में गायब हो गई थी पूरी बारात

जयपुर. सीढ़ियों की भूल-भुलैया के लिए ख्यात दौसा के आभानेरी कस्बा स्थित चांद बावड़ी नए टूरिस्ट डेस्टिनेशन के रूप में जल्द ही दुनिया के मानचित्र पर नजर आएगी। केंद्र ने इसके प्रचार-प्रसार के लिए बजट भी मंजूर कर दिया है। ऐसा माना जाता है कि यह बावड़ी एक रात में तैयार हुई थी। एक बार इसमें बनी गुफा में बारात गई जो आज तक वापस नहीं आई।
इसके कायाकल्प के लिए राज्य सरकार ने भी अपने स्तर पर तैयारी की है। इसके तहत शुरुआत में 50 लाख रुपए की लागत से इसके आसपास के अतिक्रमण हटाने और नए रास्ते तैयार कराए जा रहे हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग के सहायक पुराविद प्रवीण सिंह के मुताबिक यहां एंट्री टिकट शुरू करने के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजा गया है। पुरातत्व विभाग के निदेशक हृदेश कुमार ने बताया कि यहां पर टूरिज्म की काफी संभावना है। अब तक यहां करीब 47 लाख के काम हो चुके हैं। टूरिस्ट फैसिलिटी भी डेवलप की गई है।

गुफा

बावड़ी की सबसे निचली मंजिल पर बने दो ताखों में स्थित गणेश एवं महिसासुर मर्दिनी की भव्य प्रतिमाएं इसकी खूबसूरती में चार चांद लगा देती हैं। इस बावड़ी में एक गुफा भी है, जिसकी लंबाई लगभग 17 कि.मी. है, जो पास ही स्थित गांव भांडारेज में निकलती है। कहा जाता है कि युद्ध के समय राजा एवं उनके सैनिकों द्वारा इस सुरंग का इस्तेमाल किया जाता था।
भूल-भुलैया के लिए मशहूर
> बावड़ी में 250 एक समान सीढ़ियों की भूल-भुलैया है। कहा जाता है कि कोई सीढ़ियों पर सिक्के रखकर भी वापस आना-जाना चाहे तो चूक तय है। एक फिल्म की शूटिंग के दौरान आए गोविंदा ने भी इसे स्वीकारा।
> किंवदंती है कि एक बार एक बारात यहां आई और बावड़ी में मौजूद अंधेरी-उजाली गुफा में उतर गई। इसके बाद बाहर नहीं आई।
> कहते हैं चांदबावड़ी, अलूदा की बावड़ी और भांडारेज की बावड़ी को एक रात में बनाया गया। ये तीनों सुरंग से एक-दूसरे से जुडी हैं।
हॉलीवुड व बॉलीवुड भी नहीं रहे दूर
आभानेरी अंग्रेजी और हिन्दी फिल्मों में भी छाई हुई है। अंग्रेजी फिल्म 'द फ़ॉल' व प्रसिद्ध हिन्दी फिल्म 'भूल भूलैया' सहित अन्य कई फिल्मों की शूटिंग यहां हो चुकी है। चांद बावड़ी की सीढ़ियों पर कई कलाकार भी थिरक चुके हैं।
यह भी खास
> बावड़ी वाटर हार्वेस्टिंग का खूबसूरत नमूना है।
> यह धरोहर देश की सबसे बड़ी और गहरी बावड़ी में शुमार है।
> यहां के राजा चांद ने 8वीं सदी में इसे बनवाया था।
> बावड़ी में बेहद खूबसूरत भित्ति चित्र बने हुए हैं।