शनिवार, 28 मार्च 2015

गांव की बेटी पर आया बादशाह का दिल, पाने के लिए खेला खूनी खेल

जयपुर। राजस्थान का इतिहास वीरता की सच्ची गाथाओं के साथ-साथ अनुठी प्रेम कहानियों के लिए भी जाना जाता है। यहां अनेकों प्रेम कथाएं प्रचलित हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही ऐसी है जो इतिहास के पन्नों पर अपना नाम लिखवाने में सफल हुए। ऐसी ही एक कहानी है मारवाड़ के एक वेश्या की बेटी की जिसने राजा के आदेश की अवहेलना की। उसे अपने प्रेम में इतना विश्वास था कि उसने सजा की परवाह किए बिना राजा का प्रस्ताव ठुकरा दिया था।
ये प्रेम कहानी पूरे राजस्थान में बहुत मशहूर है। गुजरात के बादशाह महमूद शाह का दिल मारवाड़ से आई जवाहर पातुर की बेटी कंवल पर आ गया। उसपर कंवर की खूबसूरती का भूत सवार था। उसने कंवल को समझाने की कोशिश की और कहा, " मेरी बात मान ले, मेरे पास आजा। मैं तुझे दो लाख रुपये सालाना की जागीर दे दूंगा और तेरे सामने पड़े ये हीरे-जवाहरात भी तेरे होंगे। इतना कहकर राजा ने हीरों का हार कंवल के गले में पहनाने की कोशिश की।
राजा के इस बर्ताव से खुश होने के बजाए कंवल ने नाराजगी दर्ज की और हीरों का हार तोड़कर फेंक दिया। उसकी मां एक वेश्या थी जिसका नाम जवाहर पातुर था। उसने बेटी की हरकत पर बादशाह से माफी मांगी। मां ने बेटी को बहुत समझाया कि बादशाह की बात मान ले और उसके पास चले जा तू पुरे गुजरात पर राज करेगी। पर कंवल ने मां से साफ मना कर दिया। उसने मां से कहा कि वह "केहर" को प्यार करती है। दुनिया का कोई भी राजा उसके किसी काम का नहीं।
कंवर केहर सिंह चौहान महमूद शाह के अधीन एक छोटी सी जागीर "बारिया" का जागीरदार था और कंवल उसे प्यार करती थी। उसकी मां ने खूब समझाया कि तू एक वेश्या की बेटी है, तु किसी एक की घरवाली नहीं बन सकती। लेकिन कंवल ने साफ कह दिया कि "केहर जैसे शेर के गले में बांह डालने वाली उस गीदड़ महमूद के गले कैसे लग सकती है।" यह बात जब बादशाह को पता चला तो वह आग बबूला हो गया। उसने कंवल को कैद करने के आदेश दे दिए।
बादशाह ने एलान किया कि केहर को कैद करने वाले को उसकी जागीर जब्त कर दे दी जाएगी पर केहर जैसे राजपूत योद्धा से कौन टक्कर ले। फिर भी दरबार में उपस्थित उसके सामंतों में से एक जलाल आगे आया उसके पास छोटी सी जागीर थी सो लालच में उसने यह बीड़ा उठा ही लिया। होली खेलने के बहाने से उसने केहर को महल में बुलाकर षड्यंत्र पूर्वक उसे कैद कर दिया ताकि वह अपने प्रेमी की दयनीय हालत देख दुखी होती रहे।
कंवल रोज पिंजरे में कैद केहर को खाना खिलाने आती। एक दिन कंवल ने एक कटारी व एक छोटी आरी केहर को लाकर दी। उसी समय केहर की दासी टुन्ना ने वहां सुरक्षा के लिए तैनात फालूदा खां को जहर मिली भांग पिला बेहोश कर दिया।
इस बीच मौका पाकर केहर पिंजरे के दरवाजे को काट आजाद हो गया और अपने साथियों के साथ से बाहर निकल आया। जागीर जब्त होने के कारण केहर मेवाड़ के एक सीमावर्ती गांव के मुखिया गंगो भील से मिलकर आपबीती सुनाई। गंगो भील ने अपने अधीन साठ गांवों के भीलों का पूरा समर्थन केहर को देने का वायदा किया।
केहर के जाने के बाद बादशाह ने केहर को मारने के लिए कई योद्धा भेजे पर सब मारे गए। इसी बीच बादशाह को समाचार मिला कि केहर की तलवार के एक वार से जलाल के टुकड़े टुकड़े हो गए। कंवल केहर की जितनी किस्से सुनती, उतनी ही खुश होती और उसे खुश देख बादशाह को उतना ही गुस्सा आता पर वह क्या करे बेचारा बेबस था। केहर को पकड़ने या मारने की हिम्मत उसके किसी सामंत व योद्धा में नहीं थी।
छगना नाई की बहन कंवल की नौकरानी थी एक दिन कंवल ने एक पत्र लिख छगना नाई के हाथ केहर को भिजवाया। केहर ने कंवल का सन्देश पढ़ा- " मारवाड़ के व्यापारी मुंधड़ा की बारात अजमेर से अहमदाबाद आ रही है रास्ते में आप उसे लूटना मत और उसी बारात के साथ वेष बदलकर अहमदाबाद आ जाना। पहुंचने पर मैं दूसरा सन्देश आपको भेजूंगी।"
अजमेर अहमदाबाद मार्ग पर बारात में केहर व उसके चार साथी बारात के साथ हो लिए केहर जोगी के वेष में था उसके चारों राजपूत साथी हथियारों से लैस थे। कंवल ने बादशाह के प्रति अपना रवैया बदल लिया पर नजदीक जाने के बाद भी महमूद शाह को अपना शरीर छूने ना देती। कंवल ने अपनी दासी को बारात देखने के बहाने भेज केहर को सारी योजना समझा दी।
बारात पहुंचने से पहले ही कंवल ने राजा से कहा - "हजरत केहर का तो कोई अता-पता नहीं आखिर आपसे कहां बच पाया होगा, उसका इंतजार करते करते मैं भी थक गई हूं अब तो मेरी जगह आपके चरणों में ही है। लेकिन हुजूर मैं आपकी बांदी बनकर नहीं रहूंगी अगर आप मुझे वाकई चाहते है तो आपको मेरे साथ विवाह करना होगा और विवाह के बारे में मेरी कुछ शर्तेंं है वह आपको माननी होगी।"
कंवर की शर्तें
1- शादी मुंधड़ा जी की बारात के दिन ही हों।
2- विवाह हिन्दू रितिरिवाजानुसार हो। विनायक बैठे, मंगल गीत गाये जाए, सारी रात नौबत बाजे।
3- शादी के दिन मेरा डेरा बुलंद गुम्बज में हों।
4- आप बुलंद गुम्बज पधारें तो आतिशबाजी चले, तोपें छूटे, ढोल बजे।
5- मेरी शादी देखने वालों के लिए किसी तरह की रोक टोक ना हो और मेरी मां जवाहर पातुर पालकी में बैठकर बुलन्द गुम्बज के अन्दर आ सके।
उसकी खुबसूरती में पागल राजा ने उसकी सारी शर्तें मान ली। शादी के दिन सांझ ढले कंवल की दासी टुन्ना पालकी ले जवाहर पातुर को लेने उसके डेरे पर पहुंची वहां योजनानुसार केहर शस्त्रों से सुसज्जित हो पहले ही तैयार बैठा था टुन्ना ने पालकी के कहारों को किसी बहाने इधर उधर कर दिया और उसमे चुपके से केहर को बिठा पालकी के परदे लगा दिए। पालकी के बुलन्द गुम्बज पहुंचने पर सारे मर्दों को वहां से हटवाकर कंवल ने केहर को वहां छिपा दिया।
थोड़ी ही देर में राजा हाथी पर बैठ सजधज कर बुलंद गुम्बज पहुंचा। महमूद शाह के बुलंद गुम्बज में प्रवेश करते ही बाहर आतिशबाजी होने लगी और ढोल पर जोरदार थाप की गडगडाहट से बुलंद गुम्बज थरथराने लगी। तभी केहर बाहर निकल आया और उसने बादशाह को ललकारा -" आज देखतें है शेर कौन है और गीदड़ कौन ? तुने मेरे साथ बहुत छल कपट किया सो आज तुझे मारकर मैं अपना वचन पूरा करूंगा।"
दोनों योद्धा भीड़ गए, दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। दोनों में मल्लयुद्ध होने लगा। उनके पैरों के धमाकों से बुलंद गुम्बज थरथराने लगा पर बाहर हो रही आतिशबाजी के चलते अन्दर क्या हो रहा है किसी को पता न चल सका। चूंकि केहर मल्ल युद्ध में भी प्रवीण था इसलिए महमूद शाह को उसने थोड़ी देर में अपने मजबूत घुटनों से कुचल दिया बादशाह के मुंह से खून का फव्वारा छुट पड़ा और कुछ ही देर में उसकी जीवन लीला समाप्त हो गयी।
दासी टुन्ना ने केहर व कंवल को पालकी में बैठा पर्दा लगाया और कहारों और सैनिकों को हुक्म दिया कि - जवाहर बाई की पालकी तैयार है उसे उनके डेरे पर पहुंचा दो और बादशाह आज रात यही बुलंद गुम्बज में कंवल के साथ विराजेंगे। कहार और सैनिक पालकी ले जवाहर बाई के डेरे पहुंचे वहां केहर का साथी सांगजी घोड़ों पर जीन कस कर तैयार था। केहर ने कंवल को व सांगजी ने टुन्ना को अपने साथ घोड़ों पर बैठाया और चल पड़े। जवाहर बाई को छोड़ने आये कहार और शाही सिपाही एक दूसरे का मुंह ताकते रह गए। 
 
 
 
 

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

जयपुर। दुर्गा मां के कई रूप और अवतार हैं। हमारे देश में दुर्गा मां को शक्ति की देवी के रूप में पूजा जाता है। यही वजह है कि पूरे भारत में नवरात्र के अवसर पर माता के मंदिरों में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहा हूं, जिसे मुगल बादशाह औरंगजेब की सेना तोडऩे पहुंची तो मधुमक्खियों (भंवरों) ने उन पर हमला कर दिया।
लोक मान्यता के अनुसार एक बार मुगल बादशाह औरंगजेब ने राजस्थान के सीकर में स्थित जीण माता और भैरों के मंदिर को तोडऩे के लिए अपने सैनिकों को भेजा। जब यह बात स्थानीय लोगों को पता चली तो बहुत दुखी हुए। बादशाह के इस व्यवहार से दुखी होकर लोग जीण माता की प्रार्थना करने लगे। इसके बाद जीण माता ने अपना चमत्कार दिखाया और वहां पर मधुमक्खियों के एक झुंड ने मुगल सेना पर धावा बोल दिया।
मधुमक्खियों के काटे जाने से बेहाल पूरी सेना घोड़े और मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई। कहते है कि स्वयं बादशाह की हालत बहुत गंभीर हो गई तब बादशाह ने अपनी गलती मानकर माता का अखंड ज्योत जलाने का वचन दिया और कहा कि वह हर महीने सवा मन तेल इस ज्योत के लिए भेंट करेगा। इसके बाद औरंगजेब की तबीयत में सुधार होने लगा। 
पहले दिल्ली से फिर जयपुर से बादशाह भिजवाता रहा तेल
कहते हैं कि बादशाह ने कई सालों तक तेल दिल्ली से भेजा। फिर जयपुर से भेजा जाने लगा। औरंगजेब के बाद भी यह परंपरा जारी रही और जयपुर के महाराजा ने इस तेल को मासिक के बजाय वर्ष में दो बार नवरात्र के समय भिजवाना आरंभ कर दिया। महाराजा मान सिंह जी के समय उनके गृह मंत्री राजा हरी सिंह अचरोल ने बाद में तेल के स्थान पर नगद 20 रु. तीन आने प्रतिमाह कर दिए, जो निरंतर प्राप्त होते रहे। 
भाई के स्नेह पर लगी थी जीण माता और उनकी भाभी में शर्त
ऐसा माना जाता है कि जीण माता का जन्म चौहान वंश के राजपूत परिवार में हुआ था। वह अपने भाई से बहुत स्नेह करती थीं।
माता जीण अपनी भाभी के साथ तालाब से पानी लेने गई। पानी लेते समय भाभी और ननद में इस बात को लेकर झगड़ा शुरू हो गया कि हर्ष किसे ज्यादा स्नेह करता है। इस बात को लेकर दोनों में यह निश्चय हुआ कि हर्ष जिसके सिर से पानी का मटका पहले उतारेगा वही उसका अधिक प्रिय होगा। भाभी और ननद दोनों मटका लेकर घर पहुंची लेकिन हर्ष ने पहले अपनी पत्नी के सिर से पानी का मटका उतारा। यह देखकर जीण माता नाराज हो गई। 
बहन को मनाने निकले हर्ष, नहीं मानी तो खुद की भैरों की तपस्या
नाराज होकर वह अरावली के काजल शिखर पर पहुंच कर तपस्या करने लगीं। तपस्या के प्रभाव से राजस्थान के चुरु में ही जीण माता का वास हो गया। अभी तक हर्ष इस विवाद से अनभिज्ञ था। इस शर्त के बारे में जब उन्हें पता चला तो वह अपनी बहन की नाराजगी को दूर करने उन्हें मनाने काजल शिखर पर पहुंचे और अपनी बहन को घर चलने के लिए कहा लेकिन जीण माता ने घर जाने से मना कर दिया। बहन को वहां पर देख हर्ष भी पहाड़ी पर भैरो की तपस्या करने लगे और उन्होंने भैरो पद प्राप्त कर लिया।
एक हजार वर्ष से भी अधिक पुराना है जीण माता का मंदिर
जीण माता का वास्तविक नाम जयंती माता है। माना जाता है कि माता दुर्गा की अवतार है। घने जंगल से घिरा हुआ है यह मंदिर तीन छोटी पहाड़ी के संगम पर स्थित है। इस मंदिर में संगमरमर का विशाल शिव लिंग और नंदी प्रतिमा आकर्षक है। इस मंदिर के बारे में कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध नहीं है। फिर भी कहते हैं की माता का मंदिर 1000 साल पुराना है। लेकिन कई इतिहासकार आठवीं सदी में जीण माता मंदिर का निर्माण काल मानते हैं।
 
 
 
 

ऐसा वीर जिसने सेना में आगे रहने को अपना सिर काटकर फेंका था किले में इस वीर ने अपना सिर काटकर फेंका था किले में और जीत ली थी प्रतियोगिता

जयपुर। राजस्थान का इतिहास यहां के राजपूतों के हजारों वीरता की सच्ची गाथाओं के लिए भी जाना जाता है। उन्हीं गाथाओं मे से एक है जैत सिंह चुण्डावत की कहानी। मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह की सेना की दो राजपूत रेजिमेंट चुण्डावत और शक्तावत में अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए एक प्रतियोगिता हुई थी। इस प्रतियोगिता को राजपूतों की अपनी आन, बान और शान के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर देने वाली कहावत का एक अच्छा उदाहरण माना जाता है।
मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह की सेना में विशेष पराक्रमी होने के कारण चुण्डावत खांप के वीरों को ही युद्ध भूमि में अग्रिम पंक्ति में रहने का गौरव मिला हुआ था। वह उसे अपना अधिकार मानते थे। किन्तु शक्तावत खांप के वीर राजपूत भी कम पराक्रमी नहीं थे। उनकी भी इच्छा थी की युद्ध क्षेत्र में सेना में आगे रहकर मृत्यु से पहला मुकाबला उनका होना चाहिए। उन्होंने मांग रखी कि हम चुंडावतों से त्याग, बलिदान व शौर्य में किसी भी प्रकार कम नहीं है। युद्ध भूमि में आगे रहने का अधिकार हमें मिलना चाहिए। इसके लिए एक प्रतियोगिता रखी गई जिसे जीतने के लिए चुण्डावत ने अपना सिर खुद धड़ से अलग कर किले में फेंक दिया था।
सभी जानते थे कि युद्ध भूमि में सबसे आगे रहना यानी मौत को सबसे पहले गले लगाना। मौत की इस तरह पहले गले लगाने की चाहत को देख महाराणा धर्म-संकट में पड़ गए। किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर युद्ध भूमि में आगे रहने का अधिकार दिया जाए?
इसका निर्णय करने के लिए उन्होंने एक कसौटी तय की, जिसके अनुसार यह निश्चित किया गया कि दोनों दल उन्टाला दुर्ग (किला जो कि बादशाह जहांगीर के अधीन था और फतेहपुर का नवाब समस खां वहां का किलेदार था) पर अलग-अलग दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे व जिस दल का व्यक्ति पहले दुर्ग में प्रवेश करेगा उसे ही युद्ध भूमि में रहने का अधिकार दिया जाएगा।
प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए दोनों दलों के रण-बांकुरों ने उन्टाला दुर्ग (किले) पर आक्रमण कर दिया। शक्तावत वीर दुर्ग के फाटक के पास पहुंच कर उसे तोड़ने का प्रयास करने लगे तो चुंडावत वीरों ने पास ही दुर्ग की दीवार पर रस्से डालकर चढ़ने का प्रयास शुरू कर दिया। इधर शक्तावतों ने जब दुर्ग के फाटक को तोड़ने के लिए फाटक पर हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढाया तो फाटक में लगे हुए लोहे के नुकीले शूलों से सहम कर हाथी पीछे हट गया।  
हाथी को पीछे हटते देख शक्तावतों का सरदार बल्लू शक्तावत, अद्भुत बलिदान का उदहारण देते हुए फाटक के शूलों पर सीना अड़ाकर खड़ा हो गया व महावत को हाथी से अपने शरीर पर टक्कर दिलाने को कहा जिससे कि हाथी शूलों के भय से पीछे न हटे।
एक बार तो महावत सहम गया, किन्तु फिर वीर बल्लू के मृत्यु से भी भयानक क्रोधपूर्ण आदेश की पालन करते हुए उसने हाथी से टक्कर मारी जिसके बाद फाटक में लगे हुए शूल वीर बल्लू शक्तावत के सीने में घुस गए और वह वीर-गति को प्राप्त हो गया। उसके साथ ही दुर्ग का फाटक भी टूट गया।
शक्तावत के दल ने दुर्ग का फाटक तोड़ दिया। दूसरी ओर चूण्डावतों के सरदार जैत सिंह चुण्डावत ने जब यह देखा कि फाटक टूटने ही वाला है तो उसने पहले दुर्ग में पहुंचने की शर्त जीतने के उद्देश्य से अपने साथी को कहा कि मेरा सिर काटकर दुर्ग की दीवार के ऊपर से दुर्ग के अन्दर फेंक दो। साथी जब ऐसा करने में सहम गया तो उसने स्वयं अपना मस्तक काटकर दुर्ग में फेंक दिया।
फाटक तोड़कर जैसे ही शक्तावत वीरों के दल ने दुर्ग में प्रवेश किया, उससे पहले ही चुण्डावत सरदार का कटा मस्तक दुर्ग के अन्दर मौजूद था। इस प्रकार चूणडावतों ने अपना आगे रहने का अधिकार अद्भुत बलिदान देकर कायम रखा।
 
 
 

न ही बादशाह अकबर और न अंग्रेज जान पाए इन 9 दैविक ज्वालाओं का राज

जयपुर। भारत ही क्या पूरे विश्व में पृथ्वी के गर्भ से ज्वाला निकलना वैसे कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि पृथ्वी की अंदरूनी हलचल के कारण पूरी दुनिया में कहीं ज्वाला तो कहीं गरम पानी निकलता रहता है। कहीं-कहीं तो बाकायदा पावर हाऊस भी बनाए गए हैं, जिनसे बिजली उत्पादित की जाती है।
लेकिन नवरात्रों के पावन अवसर पर आपको आज बताने जा रहे हैं एक ऐसे मंदिर के बारे में जिसे हिमालय की गोद में पंजाब और हिमाचल के महाराजाओं ने बनवाया। इस मंदिर में प्राकृतिक रूप से निकलने वाली ज्वालाओं का रहस्य न तो बादशाह अकबर जान पाए थे और न ही अंग्रेज। अाजादी के बाद भी भूगर्भ विज्ञानियों से राज को जानने की कोशिश की लेकिन विफल हुए।
भूगर्भ से निकलने वाली ज्वाला को इस्तेमाल करना चाहते थे अंग्रेज
हिमाचल के कांगड़ा जिला के ज्वाला मां के इस मंदिर में निकलने वाली ज्वाला चमत्कारिक है। ब्रितानी काल में अंग्रेजों ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा दिया कि जमीन के अंदर से निकलती इस ऊर्जा का इस्तेमाल किया जाए, लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वे इस भूगर्भ से निकलती इस ज्वाला का पता नहीं कर पाए कि यह आखिर इसके निकलने का कारण क्या है। वहीं इतिहास इस बात का भी गवाह है कि अकबर द ग्रेट लाख कोशिशों के बाद भी इसे बुझा न पाया।
भूगर्भ विज्ञानी सात दशकों से बैठे हैं तंबू गाड़ कर
यही नहीं पिछले सात दशकों से भूगर्भ विज्ञानी इस क्षेत्र में तंबू गाड़ कर बैठे हैं, वह भी इस ज्वाला की जड़ तक नहीं पहुंच पाए। यह सब बातें यह सिद्ध करती हैं की यहां ज्वाला प्राकृतिक रूप से ही नहीं चमत्कारी रूप से भी निकलती है, नहीं तो आज यहां मंदिर की जगह मशीनें लगी होतीं और बिजली का उत्पादन होता।
पृथ्वी के गर्भ से निकल रही है 9 ज्वालाएं
यह मंदिर माता के अन्य मंदिरों की तुलना में अनोखा है क्योंकि यहां पर किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती है बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही 9 ज्वालाओं की पूजा होती है। यहां पर पृथ्वी के गर्भ से 9 अलग अलग जगह से ज्वालाएं निकल रही हैं जिसके ऊपर ही मंदिर बना दिया गया है। इन 9 ज्योतियों को महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अंबिका, अंजीदेवी के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का प्राथमिक निमार्ण राजा भूमि चंद ने करवाया था। बाद में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह और हिमाचल के राजा संसारचंद ने 1835 में इस मंदिर का पूर्ण निमार्ण कराया। यही वजह है कि इस मंदिर में हिंदुओं और सिखों की साझी आस्था है।
यहां है यह चमत्कारिक ज्वाला मां का मंदिर
ज्वालामुखी देवी का मंदिर हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा शहर से 30 किलोमीटर की दूरी पर है। ज्वालामुखी मंदिर को जोतां वाली का मंदिर भी कहा जाता है। ज्वालामुखी मंदिर को खोजने का श्रेय पांडवों को जाता है। इसकी गिनती माता के प्रमुख शक्ति पीठों में होती है। ऐसी मान्यता है कि यहां देवी सती की जीभ गिरी थी।
बादशाह अकबर ज्वालाओं को बुझाने के लिए खुदवा दी थी नहर
बादशाह अकबर ने इस मंदिर के बारे में सुना तो वह हैरान हो गया 7 उसने अपनी सेना बुलाई और खुद मंदिर की तरफ चल पड़ा। मंदिर में जलती हुई ज्वालाओं को देखकर उसके मन में शंका हुई। उसने अपनी सेना को मंदिर में जल रही ज्वालाओं पर पानी डालकर बुझाने के आदेश दिए। लाख कोशिशों के बाद भी अकबर की सेना मंदिर की ज्वालाओं को बुझा नहीं पाई। देवी मां की अपार महिमा को देखते हुए
उसने सवा मन (पचास किलो) सोने का छतर देवी मां के दरबार में चढ़ाया, लेकिन माता ने वह छतर कबूल नहीं किया और वह छतर गिर कर किसी अन्य पदार्थ में परिवर्तित हो गया। आज भी बादशाह अकबर का यह छतर ज्वाला देवी के मंदिर में पड़ा है।
गोरख डिब्बी का चमत्कारिक स्थान
मंदिर का मुख्य द्वार काफी सुंदर एवं भव्य है। मंदिर में प्रवेश के साथ ही बाएं हाथ पर अकबर नहर है। इस नहर को अकबर ने बनवाया था। उसने मंदिर में प्रज्ज्वलित ज्योतियों को बुझाने के लिए यह नहर बनवाया था। उसके आगे मंदिर का गर्भ द्वार है जिसके अंदर माता ज्योति के रूम में विराजमान है। थोड़ा ऊपर की ओर जाने पर गोरखनाथ का मंदिर है जिसे गोरख डिब्बी के नाम से जाना जाता है। कहते हैं की यहां गुरु गोरखनाथ पधारे थे और कई चमत्कार दिखाए थे। यहां पर आज भी एक पानी का कुण्ड है जो देखने मे खौलता हुआ लगता है पर वास्तव मे पानी ठंडा है। ज्वालामुखी मंदिर की चोटी पर सोने की परत चढ़ी हुई है।

गुरुवार, 26 मार्च 2015

370 किमी. पैदल चल यहां आया था अकबर, झुका चुके हैं शीश

जयपुर। भारत में ऐसे अनेक तीर्थ हैं, जो सभी धर्मों के लिए आस्था का केंद्र हैं। ऐसा ही एक तीर्थ है अजमेर शरीफ, जहां ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है। कहा जाता है कि मुगल बादशाह अकबर आगरा से 370 किमी. पैदल ही चलकर ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पुत्र प्राप्ति की कामना लिए आया था। यही नहीं बॉलीवुड के शहंशाह माने जाने वाले अमिताभ बच्चन भी दादा बनने के बाद यहां चादर चढ़ाने आए थे। आज इस दर पर हर तबके के चेहरे दिखाई देते हैं चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो। यहां अक्सर बॉलीवुड स्टार्स अपने फिल्मों की सफलता के लिए दुआ मांगने आते रहे हैं।
बेहद दिलचस्प है इस दरगाह की कहानी
89 साल की उम्र में ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने खुद को घर के अंदर बंद कर लिया। उनसे जो भी मिलने आता, वह मिलने से इनकार कर देते। इस दौरान नमाज अता करते-करते वह एक दिन अल्लाह को प्यारे हुए। उनके चाहने वालों ने उस स्थान पर उन्हें दफना दिया और कब्र बना दी। बाद में, उस स्थान पर उनके प्रिय भक्तों ने एक भव्य मकबरे का निर्माण कराया, जिसे आजकल 'ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का मकबरा' कहा जाता है।
रोचक है यहां की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि- माना जाता है कि ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती साहिब सन 1195 ई में मदीना से भारत आए थे। ख्वाजा साहिब ऐसे व़क्त भारत में आए, जब मोहम्मद गौरी की फौज पृथ्वीराज चौहान से पराजित होकर वापस गजनी की ओर भाग रही थी। उन लोगों ने ख्वाजा साहिब से कहा कि आप आगे न जाएं। आगे जाने पर आपके लिए ख़तरा पैदा हो सकता है, चूंकि मोहम्मद गौरी की पराजय हुई है। मगर ख्वाजा साहिब नहीं माने। वह कहने लगे, चूंकि तुम लोग तलवार के सहारे दिल्ली गए थे, इसलिए वापस आ रहे हो। मगर मैं अल्लाह की ओर से मोहब्बत का संदेश लेकर जा रहा हूं।
थोड़ा समय दिल्ली में रुककर वह अजमेर चले गए और वहीं रहने लगे। वह जब 97 वर्ष के हुए तो उन्होंने ख़ुद को घर के अंदर बंद कर लिया। जो भी मिलने आता, वह मिलने से इनकार कर देते। नमाज अता करते-करते वह एक दिन अल्लाह को प्यारे हुए, उस स्थान पर उनके चाहने वालों ने उन्हें दफ़ना दिया और क़ब्र बना दी। बाद में उस स्थान पर उनके चाहने वालों ने मकबरा बना दिया, जिसे आजकल ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का मकबरा कहते है।
पुत्र प्राप्ति के बाद अकबर 437 किमी. पैदल चलकर आया था
ईरान में जन्में ख्वाजा साहब अपने जीवन के कुछ पड़ाव वहां बिताने के बाद भारत आ गए। एक बार बादशाह अकबर ने दरगाह शरीफ में दुआ मांगी कि उन्हें पुत्र-रत्न प्राप्त होगा तो वे पैदल चलकर जियारत पेश करने आएंगे। सलीम को पुत्र के रूप में प्राप्त करने के बाद अकबर ने आगरा से 437 किमी. दूर अजमेर शरीफ तक की यात्रा नंगे पैर चलकर की थी। यहां मन्नत मांगने के साथ पवित्र धागा बांधने का तो रिवाज है, परंतु मुराद पूरी होने पर खोलने का नहीं।
 हाथ लगते ही खुल गया था द्वार
ख़्वाजा के वंशज हुसैन अजमेरी ग़रीब नवाज़ की औलाद से ताल्लुक रखतें हैं। उनके पिता की मृत्य के बाद अजमेर शरीफ के लोगों ने यह तय किया कि उनके तीनो भाइयों को ख्वाजा के दर पर ले चलते हैं। इनमें से जिसके हाथ लगाने से दरवाजा रोजा शरीफ खुद-ब-खुद खुल जाएगा उसी को दरगाह शरीफ का दीवान मुकर्रर कर दिया जाएगा। लिहाजा उनके दो भाइयों के हाथ से रोजा शरीफ का दरवाजा नहीं खुला। उनके हाथ लगाते ही रोजा शरीफ का दरवाजा खुल गया।
वास्तुकला का सुंदर संगम
तारागढ़ पहाड़ी की तलहटी में स्थित दरगाह शरीफ वास्तुकला की दृष्टि से भी बेजोड़ है...यहां ईरानी और हिन्दुस्तानी वास्तुकला का सुंदर संगम दिखता है। दरगाह का प्रवेश द्वार और गुंबद बेहद खूबसूरत है। इसका कुछ भाग अकबर ने तो कुछ जहांगीर ने पूरा करवाया था। माना जाता है कि दरगाह को पक्का करवाने का काम माण्डू के सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी ने करवाया था।
दरगाह के अंदर है चांदी का कटघरा
दरगाह के अंदर बेहतरीन नक्काशी किया हुआ एक चांदी का कटघरा है। इस कटघरे के अंदर ख्वाजा साहब की मजार है। यह कटघरा जयपुर के महाराजा राजा जयसिंह ने बनवाया था। दरगाह में एक खूबसूरत महफिल खाना भी है, जहां कव्वाल ख्वाजा की शान में कव्वाली गाते हैं। दरगाह के आस-पास कई अन्य ऐतिहासिक इमारतें भी स्थित हैं।
अकबर द्वारा चढ़ाए गए देग में बनता है पकवान
दरगाह के बरामदे में दो बड़ी देग रखी हुई हैं...इन देगों को बादशाह अकबर और जहांगीर ने चढ़ाया था। तब से लेकर आज तक इन देगों में काजू, बादाम, पिस्ता, इलायची, केसर के साथ चावल पकाया जाता है और गरीबों में बांटा जाता है। दरगाह में एक सुंदर महफिलखाना तथा कई दरवाजे हैं, जहां कव्वाल ख्वाजा की शान में कव्वाली गाते हैं। दरगाह के आसपास कई अन्य ऐतिहासिक इमारतें भी स्थित हैं।