आजादी की पहली बिगुल 1857 में बजी। सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरोध में
आवाज उठाई थी। इसे सिपाही विद्रोह या फिर भारतीय विद्रोह भी कहते हैं। यह
विद्रोह दो सालों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। वैसे इस विद्रोह
की शुरुआत छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों और आगजनी से हुआ था। लेकिन कुछ
ही महीनों में इसने एक बड़ा रूप ले लिया। राजस्थान से लेकर उत्तर प्रदेश और
मध्यप्रदेश तक फैला चंबल का बीहड़ नामी डकैतों के लिए कुख्यात है। लेकिन
आजादी के जंग में इस बीहड़ में रहने वाले डकैतों ने अहम भूमिका निभाई थी। ऐसे खूनी
जंग की दास्तां। जिन्होंने अपना जीवन ही नहीं बल्कि सबकुछ न्यौछावर कर दिया
इस भारत मां के लिए। आइए उनकी इस शहादत में हमलोग भी उन्हें सलाम करें।
डकैतों को बागी कहलाना पसंद: अब डकैतों को बागी कहलाना पसंद है।
चंबल के बीहड़ों में आजादी की जंग 1909 से शुरू हुई थी। इससे पहले शौर्य,
पराक्रम और स्वाभिमान का प्रतीक मानी जाने वाली बीहड़ की वादियां चंबल के
पानी की तरह साफ सुथरी और शांत हुआ करती थी। चंबल में रहने वाले लोगों ने
आजादी की लड़ाई लड़ाई में क्रांतिकारियों का साथ दिया। उन्होंने
क्रांतिकारियों को छिपने का ठिकाना भी बनाया। बीहड़ों में रहने वाले डकैत
कहे जाते हैं लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें बागी कहा। अंग्रेजों के खिलाफ भारत
छोड़ो आंदोलन में चंबल के किनारे बसी हथकान रियासत के हथकान थाने में सन
1909 में चर्चित डकैत पंचम सिंह पामर और मुस्कुंड के सहयोग से क्रांतिकारी
पंडि़त गेंदालाल दीक्षित ने थाने पर हमला कर 21 पुलिस कर्मियों को मौत के
घाट उतार दिया था।
कौन थे चंबल में रहने वाले: राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश
और उत्तर प्रदेश में बहने वाली चंबल के किनारे 450 वर्ग किमी फैले इन
बीहड़ों में डकैत आज से नहीं आजादी से पहले भी हुआ करते थे। उन्हें पिंडारी
कहा जाता था। ये मुगलकालीन में जमींदारों के वफादार सिपाही हुआ करते थे।
जमींदार इनका इस्तेमाल किसी विवाद को निबटाने के लिए किया करते थे। मुगलकाल
की समाप्ति के बाद अंग्रेजी शासन में चंबल के किनारे रहने वाले इन्हीं
पिंडारियों ने वहीं डकैती डालना शुरू कर दिया और बचने के लिए चंबल की
वादियों का रास्ता अपनाया। आजादी की इस जंग में हजारों घर बर्बाद हो गए।
अंग्रेजों ने उनकी घरों में आग लगा दी। लेकिन इन डकैतों ने आजादी की लड़ाई
में कंधे से कंधे से मिलाकर क्रांतिकारियों ने साथ दिया।
सबसे पहले नसीराबाद से शुरू हुई विद्रोह:1857 के समय
राजस्थान के कई राजपूत ब्रिटिश सरकार के खिलाफ थे। ये ब्रितानियों के शासन
से संतुष्ट नहीं थे। जिससे इनके मन में सरकार के खिलाफ क्रांति की बीज
उत्पन्न होने लगे। इन लोगों के साथ आम जनता भी शामिल हो गई। राजस्थान के कई
इलाकों में इस विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। यहां से विद्रोह शुरू होने के
पीछे मुख्य कारण यह था कि ब्रिटिश सरकार ने अजमेर की 15वीं बंगाल इंफेंट्री
को नसीराबाद भेज दिया था। क्योंकि सरकार को इस पर विश्वास नहीं था। सरकार
के इस निर्णय से सभी सैनिक नाराज हो गए और उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ
क्रांति का आगाज कर दिया। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश सरकार ने बम्बई के
सैनिकों को नसीराबाद में बुलवाया और पूरी सेना की जांच पड़ताल करने को कहा।
ब्रिटिश सरकार ने नसीराबाद में कई तोपें तैयार करवाई। इससे भी नसीराबाद के
सैनिक नाराज हो गए और उन्होंने विद्रोह कर दिया। सेना ने कई ब्रितानियों को
मौत के घाट उतार दिया साथ ही साथ उनकी सम्पत्ति को भी नष्ट कर दिया। इन
सैनिकों के साथ अन्य लोग भी शामिल हो गए। नसीराबाद की घटना की खबर मिलते ही
3 जून 1857 को नीमच के विद्रोहियों ने कई ब्रितानियों को मौत के घाट उतार
दिया। इसके फलस्वरूप ब्रितानियों ने भी बदला लेने की योजना बनाई। उन्होंने 7
जून को नीमच पर अपना अधिकार कर लिया। बाद में विद्रोही राजस्थान के दूसरे
इलाकों की तरफ बढऩे लगे।
राजा के शासन से थे असंतुष्ट: जोधपुर के कुछ लोग राजा
तख्त सिंह के शासन से असंतुष्ट थे। जिसके कारण एक दिन यहां के सैनिकों ने
इनके खिलाफ विद्रोह कर दिया। उनके साथ आउवा के ब्रिटिश विरोधी कुशाल सिंह
भी थे। कुशाल सिंह का सामना करने के लिए लेफ्टिनेंट हीथकोट के साथ जोधपुर
की सेना आई थी। लेकिन कुशाल सिंह ने इन को परास्त कर दिया। बाद में
ब्रितानी सेना ने आउवा के किले पर आक्रमण किया लेकिन उनको भी हार का मुंह
देखना पड़ा। हालांकि ब्रिगेडियर होम्स उस पराजय का बदला लेना चाहता था।
इसलिए उसने आउवा पर आक्रमण किया। जिससे कुशाल सिंह ने किले को छोड़ दिया और
सलूम्बर चले गए। कुछ दिनों बाद ब्रितानियों ने आउवा पर अधिकार कर लिया और
वहा आतंक फैलाया।
अंग्रेज क्रांतिकारियों से ज्यादा बागियों से थे परेशान: अंग्रेजों
के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह थी की इनकी पहचान करना सहज नहीं था।
क्योंकि इनका ठिकाना एक जगह नहीं था। ऐसे में अंग्रेज इन्हें नहीं पकड़
पाते थे। और ये अपने काम को अंजाम देने के बाद बड़ी सहजता पूर्वक निकल जाते
थे। जिससे अंग्रेजी सिपाहियों को हर बार नाकामी ही मिलती थी। ऐसा कहा जा
सकता है कि ये आंधी की तरह आते थे और तूफान की तरह निकल जाते थे।
मेवाड़ के सामंत ब्रितानियों व महाराणा से थे नाराज: मेवाड़
के सामंत ब्रितानियों व महाराणा से नाराज थे। इन सामंतों में आपसी फूट भी
थी। महाराणा ने मेवाड़ के सामंतों को ब्रितानियों की सहायता करने की आज्ञा
दी। इसी समय सलूम्बर के रावत केसरी सिंह ने उदयपुर के महाराणा को चेतावनी
दी कि यदि आठ दिन में उनके परंपरागत अधिकार को स्वीकार न किया गया तो वह
उनके प्रतिद्वंदी को मेवाड़ का शासक बना देंगे। सलूम्बर के रावत केसरी सिंह
ने आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह को अपने यहां यहां शरण दी। इसी समय तात्या
टोपे ने राजपूताने की ओर कूच किया। 1859 में नरवर के मान सिंह ने उसके साथ
धोखा किया और उसे गिरफ्तार कर लिया। यद्यपि सामंतों ने प्रत्यक्ष रूप से
ब्रिटिश सरकार का विद्रोह नहीं किया परन्तु विद्रोहियों को शरण देकर इस
क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
विद्रोही से मिले हैं कोटा महाराजा: ब्रिटिश अधिकारी मेजर
बर्टन ने कोटा के महाराजा को बताया यहां के दो चार ब्रिटिश विरोधी
अधिकारियों को ब्रिटिश सरकार को सौंप देना चाहिए। लेकिन महाराजा ने इस काम
में असमर्थता जताई तो ब्रितानियों ने महाराजा पर आरोप लगाया कि वह
विद्रोहियों से मिले हुए हैं। इस बात की खबर मिलते ही सैनिकों ने मेजर
बर्टन को मार डाला। विद्रोहियों ने राजा के महल को घेर लिया, फिर राजा ने
करौली के शासक से सैनिक सहायता मांगी। करौली के शासक ने सहयोग किया और
विद्रोहियों को महल के पीछे खदेड़ा। इसी समय जनरल एचजी राबर्टसन अपनी सेना
के साथ चंबल नदी के किनारे पहुंचा। उसे देखकर विद्रोही कोटा से भाग गए।
राज्य के अन्य क्षेत्रों में विद्रोह: इस विद्रोह में
अलवर के कई नेताओं ने हिस्सा लिया। जयपुर में उस्मान खां और सादुल्ला खां
ने विद्रोह कर दिया। टोंक में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया ओर नीमच के
विद्रोहियों को टोंक आने का निमंत्रण दिया। इन्होंने टोंक के नवाब का घेरा
डालकर उनसे बकाया वेतन वसूल किया। इसी तरह बीकानेर के शासक ने नाना साहब को
सहायता का आश्वासन दिया था। और तात्या टोपे की सहायता के लिये दस हजार
घुड़सवार सैनिक भेजे। यद्यपि राजस्थान के अधिकांश शासक पूरे विद्रोह काल
में ब्रितानियों के प्रति वफादार रहे, फिर भी विद्रोहियों के दबाव के कारण
उन्हें यत्र-तत्र विद्रोहियों को समर्थन प्रदान करना पड़ा।
शनिवार, 16 मार्च 2013
मंगलवार, 5 मार्च 2013
हड़प्पा सभ्यता का विनाश किसी रहस्य से कम नहीं!
राजस्थान का इतिहास किसी रहस्य से कम नहीं है। यहां कि
सभ्यता और संस्कृति आज भी शोध का विषय बना हुआ है। हड़प्पा विश्व की पहली
विकसित सभ्यता है। इस सभ्यता में ही नगर की नींव रखी गई थी। इसलिए इसे
नगरीकरण सभ्यता भी कहते हैं। जिसका उल्लेख कई विद्वान और इतिहासकारों ने
किया है।
इतिहासकारों का मानना है कि पहली बार कांस्य का प्रयोग भी इसी सभ्यता में हुआ था। इसलिए इसे कांस्य सभ्यता भी कहा जाता है। यह सभ्यता 2500 ईसा पूर्व से 1800 ईसा पूर्व तक मानी जाती है। यहां के मकानों और पुरानी ईंटों से यह पता चलता की यह सभ्यता कितनी पुरानी है। हालांकि इसके विनाश के कारणों पर विद्वान के एकमत नहीं है।
नदी घाटी सभ्यताओं में सबसे प्रमुख सभ्यता थी यहां की: सिंधु घाटी सभ्यता (3300-1700 ईसा पूर्व) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में एक प्रमुख सभ्यता थी। इस सभ्यता का विकास सिंधु और सरस्वती नदी के किनारे हुआ। इसके प्रमुख केंद्र मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इसके प्रमुख केन्द्र थें। ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी। ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं। चाल्र्स मैसेन ने पहली बार इस पुरानी सभ्यता को खोजा। कनिंघम ने 1872 में इस सभ्यता के बारे में सर्वेक्षण किया। फ्लीट ने इस पुरानी सभ्यता के बारे में एक लेख लिखा। 1921 में दयाराम साहनी ने हड़घ्पा का उत्खनन किया। इस प्रकार इस सभ्यता का नाम हड़प्पा सभ्यता रखा गया। यह सभ्यता सिन्धु नदी घाटी में फैली हुई थी। इसलिए इसका नाम सिन्धु घाटी सभ्यता रखा गया। आज तक सिन्धु घाटी सभ्यता के 1400 केन्द्रों को खोजा जा चुका है। जिसमें से 925 केन्द्र भारत में है। 80 प्रतिशत स्थल सरस्वती नदी और उसकी सहायक नदियों के आस-पास है। अभी तक कुल खोजों में से 3 प्रतिशत स्थलों का ही उत्खनन हो पाया है।
क्यों रखा गया इस सभ्यता का नाम हड़प्पा: इतिहासकारों के अनुसार सिंधु घाटी सभ्यता का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक था। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से इस सभ्यता के प्रमाण मिले हैं। विद्वानों ने इसे सिन्धु घाटी की सभ्यता का नाम दिया। क्योंकि यह क्षेत्र सिंधु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में आते हैं। लेकिन बाद में रोपड़, लोथल, कालीबंगा, वनमाली, रंगापुर आदि क्षेत्रों में भी इस सभ्यता के अवशेष मिले। जो कि सिंधु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र से बाहर थे। इसलिए कई इतिहासकारों ने इस सभ्यता का प्रमुख केन्द्र हड़प्पा को माना। यहीं वजह है कि इस सभ्यता को "हड़प्पा सभ्यता" नाम देना अधिक उचित मानते हैं।
कैसी विनाश हुआ यह सभ्यता: सिंधु घाटी सभ्यता के अवसान के पीछे कई तर्क दिए जाते हैं। विनाश के बारे में विश्व के कई विद्वान और इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं। बर्बर आक्रमण, जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिक असंतुलन, बाढ़, भूंकप और महामारी, आर्थिक जैसे कारण माने जाते हैं। ऐसा लगता है कि इस सभ्यता के पतन का कोई एक कारण नहीं था बल्कि विभिन्न कारणों के मेल से ऐसा हुआ। जो अलग-अलग समय में या एक साथ होने कि सम्भावना है। मोहनजोदड़ो में नगर और जल निकास कि व्यवस्थ से महामरी कि सम्भावन कम लगती है। भीषण आग के भी प्रमाण मिले हैं। इससे साबित होता है कि यहां अग्निकांड हुआ था। मोहनजोदड़ो के एक कमरे से 14 नर कंकाल मिले है। जो आगजनी, महामारी के संकेत हैं।
इस सभ्यता की सबसे बड़ी पहचान क्या बात थी: इस सभ्यता की सबसे विशेष बात थी यहां की विकसित नगर निर्माण योजना। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो ऐसे दो नगर थे, जहां शासक वर्ग के अपने-अपने दुर्ग थे। दुर्ग के बारह एक-एक उससे निम्न स्तर का शहर था। यहां के मकान ईंटों से बने थे। जहां सामान्य परिवार रहते थे। इन नगर भवनों के बारे में विशेष बात ये भी थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे। यानि सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खंडों में विभक्त हो जाता था। ये बात सभी सिन्धु बस्तियों पर लागू होती थीं चाहे वे छोटी हों या बड़ी। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के भवन बड़े होते थे। वहां के स्मारक इस बात के प्रमाण हैं कि वहां के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल थे। ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारत देखकर सामान्य लोगों को भी यह लगेगा कि ये शासक कितने प्रतापी और प्रतिष्ठावान थे।
ईंटों का इस्तेमाल भी दूसरे सभ्यता से भिन्न: यहां के मकानों में ईंट का इस्तेमाल भी विशेष था। क्योंकि इसी समय के मिस्त्र के भवनों में धूप में सूखी ईंट का ही प्रयोग हुआ था। समकालीन मेसोपेटामिया में भी पक्की ईंटों का प्रयोग मिलता है। लेकिन इतने बड़े पैमाने पर नहीं, जितना सिंधु घाटी सभ्यता में थी। मोहनजोदड़ो की जल निकास प्रणाली अद्भुत थी। लगभग हर नगर के हर छोटे या बड़े मकान में प्रांगण और स्नानागार होता था। कालीबंगां के अनेक घरों में अपने-अपने कुएं थे।घरों का पानी बहकर सड़कों तक आता जहां इनके नीचे मोरियां (नालियां) बनी थीं।अक्सर ये मोरियां ईंटों और पत्थर की सिल्लियों से ढकीं होती थीं। सड़कों की इन मोरियों में नरमोखे भी बने होते थे। सड़कों और मोरियों के अवशेष बनावली में भी मिले हैं।
इतिहासकारों का मानना है कि पहली बार कांस्य का प्रयोग भी इसी सभ्यता में हुआ था। इसलिए इसे कांस्य सभ्यता भी कहा जाता है। यह सभ्यता 2500 ईसा पूर्व से 1800 ईसा पूर्व तक मानी जाती है। यहां के मकानों और पुरानी ईंटों से यह पता चलता की यह सभ्यता कितनी पुरानी है। हालांकि इसके विनाश के कारणों पर विद्वान के एकमत नहीं है।
नदी घाटी सभ्यताओं में सबसे प्रमुख सभ्यता थी यहां की: सिंधु घाटी सभ्यता (3300-1700 ईसा पूर्व) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में एक प्रमुख सभ्यता थी। इस सभ्यता का विकास सिंधु और सरस्वती नदी के किनारे हुआ। इसके प्रमुख केंद्र मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इसके प्रमुख केन्द्र थें। ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी। ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं। चाल्र्स मैसेन ने पहली बार इस पुरानी सभ्यता को खोजा। कनिंघम ने 1872 में इस सभ्यता के बारे में सर्वेक्षण किया। फ्लीट ने इस पुरानी सभ्यता के बारे में एक लेख लिखा। 1921 में दयाराम साहनी ने हड़घ्पा का उत्खनन किया। इस प्रकार इस सभ्यता का नाम हड़प्पा सभ्यता रखा गया। यह सभ्यता सिन्धु नदी घाटी में फैली हुई थी। इसलिए इसका नाम सिन्धु घाटी सभ्यता रखा गया। आज तक सिन्धु घाटी सभ्यता के 1400 केन्द्रों को खोजा जा चुका है। जिसमें से 925 केन्द्र भारत में है। 80 प्रतिशत स्थल सरस्वती नदी और उसकी सहायक नदियों के आस-पास है। अभी तक कुल खोजों में से 3 प्रतिशत स्थलों का ही उत्खनन हो पाया है।
क्यों रखा गया इस सभ्यता का नाम हड़प्पा: इतिहासकारों के अनुसार सिंधु घाटी सभ्यता का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक था। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से इस सभ्यता के प्रमाण मिले हैं। विद्वानों ने इसे सिन्धु घाटी की सभ्यता का नाम दिया। क्योंकि यह क्षेत्र सिंधु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में आते हैं। लेकिन बाद में रोपड़, लोथल, कालीबंगा, वनमाली, रंगापुर आदि क्षेत्रों में भी इस सभ्यता के अवशेष मिले। जो कि सिंधु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र से बाहर थे। इसलिए कई इतिहासकारों ने इस सभ्यता का प्रमुख केन्द्र हड़प्पा को माना। यहीं वजह है कि इस सभ्यता को "हड़प्पा सभ्यता" नाम देना अधिक उचित मानते हैं।
कैसी विनाश हुआ यह सभ्यता: सिंधु घाटी सभ्यता के अवसान के पीछे कई तर्क दिए जाते हैं। विनाश के बारे में विश्व के कई विद्वान और इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं। बर्बर आक्रमण, जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिक असंतुलन, बाढ़, भूंकप और महामारी, आर्थिक जैसे कारण माने जाते हैं। ऐसा लगता है कि इस सभ्यता के पतन का कोई एक कारण नहीं था बल्कि विभिन्न कारणों के मेल से ऐसा हुआ। जो अलग-अलग समय में या एक साथ होने कि सम्भावना है। मोहनजोदड़ो में नगर और जल निकास कि व्यवस्थ से महामरी कि सम्भावन कम लगती है। भीषण आग के भी प्रमाण मिले हैं। इससे साबित होता है कि यहां अग्निकांड हुआ था। मोहनजोदड़ो के एक कमरे से 14 नर कंकाल मिले है। जो आगजनी, महामारी के संकेत हैं।
इस सभ्यता की सबसे बड़ी पहचान क्या बात थी: इस सभ्यता की सबसे विशेष बात थी यहां की विकसित नगर निर्माण योजना। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो ऐसे दो नगर थे, जहां शासक वर्ग के अपने-अपने दुर्ग थे। दुर्ग के बारह एक-एक उससे निम्न स्तर का शहर था। यहां के मकान ईंटों से बने थे। जहां सामान्य परिवार रहते थे। इन नगर भवनों के बारे में विशेष बात ये भी थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे। यानि सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खंडों में विभक्त हो जाता था। ये बात सभी सिन्धु बस्तियों पर लागू होती थीं चाहे वे छोटी हों या बड़ी। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के भवन बड़े होते थे। वहां के स्मारक इस बात के प्रमाण हैं कि वहां के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल थे। ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारत देखकर सामान्य लोगों को भी यह लगेगा कि ये शासक कितने प्रतापी और प्रतिष्ठावान थे।
ईंटों का इस्तेमाल भी दूसरे सभ्यता से भिन्न: यहां के मकानों में ईंट का इस्तेमाल भी विशेष था। क्योंकि इसी समय के मिस्त्र के भवनों में धूप में सूखी ईंट का ही प्रयोग हुआ था। समकालीन मेसोपेटामिया में भी पक्की ईंटों का प्रयोग मिलता है। लेकिन इतने बड़े पैमाने पर नहीं, जितना सिंधु घाटी सभ्यता में थी। मोहनजोदड़ो की जल निकास प्रणाली अद्भुत थी। लगभग हर नगर के हर छोटे या बड़े मकान में प्रांगण और स्नानागार होता था। कालीबंगां के अनेक घरों में अपने-अपने कुएं थे।घरों का पानी बहकर सड़कों तक आता जहां इनके नीचे मोरियां (नालियां) बनी थीं।अक्सर ये मोरियां ईंटों और पत्थर की सिल्लियों से ढकीं होती थीं। सड़कों की इन मोरियों में नरमोखे भी बने होते थे। सड़कों और मोरियों के अवशेष बनावली में भी मिले हैं।
इस किले को अंग्रेज नहीं कर पाए थे फतह!

भरतपुर का ऐतिहासिक सफर: राजस्थान की कला-संस्कृति ही नहीं बल्कि इतिहास, भूगोल और समसामयिक दृश्य भी दूसरे राज्यों से अलग है। इतिहासकारों का कहना है कि महाराज सूरजमल सिंह ने 18वीं शताब्दी में भरतपुर को बसाया था। लेकिन एक किवदंती यह भी है कि भगवान राम के छोटे भाई भरत के नाम पर इस नगर का नाम भरतपुर पड़ा। इतिहासकारों का यह भी मनना है कि यहां की जमीन बहुत नीची थी। इसे ऊपर लाने के लिए मिट्टी भरी गई। इसी कारण इसका नाम "भरतपुर" पड़ा।
इस किले के एक कोने पर जवाहर बुर्ज है। यह विजय का प्रतीक है। जाट महाराज द्वारा दिल्ली पर किए गए हमले और उसकी विजय की स्मारक स्वरूप 1765 में बनाया गया था। जबकि दूसरे कोने पर फतह बुर्ज है जो 1805 में अंग्रेजी के सेना के छक्के छुड़ाने और परास्त करने की यादगार है। यहां तक अष्टधातु के दरवाजे जो अलाउद्दीन खिलजी पद्मिनी के चित्तौड़ से छीन कर ले गया था। उसे भरतपुर के राजा दिल्ली से उखाड़ कर ले आए।
मिट्टी से बना हुआ है यह किला: चारों ओर पानी से भरी हुई खाई है। इस खाई के बाहर मिट्टी का बना किला है। जिसपर अंग्रेजों की सेनाओं ने कई बार तोप के गोले दागे थे। लेकिन इस किले का कुछ नहीं बिगाड़ सके।राजस्थान का इतिहास लिखने वाले अंग्रेज इतिहासकार जेम्स टाड के अनुसार इस किले की सबसे बड़ी खासियत है कि इसकी दीवारें मिट्टी से बनी हुई हैं। इसके बावजूद इस किले को फतह करना लोहे के चने चबाने से कम नहीं था। इसलिए यह किला आज भी अजेय दुर्ग लोहागढ़ के नाम से जाना जाता है। वैसे भरतपुर का पुराना नाम लोहागढ़ ही है।
13 बार किले पर हमला: इतिहासकारों के अनुसार अजेय दुर्ग पर अंग्रेजों ने 13 बार आक्रमण किया था। लेकिन हर बार उन्हें नाकामी ही मिली। ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेजों की सेना बार-बार हारने से हताश हो गई तो वहां से भाग गई। ये भी कहावत है कि भरतपुर के जाटों की वीरता के आगे अंग्रेजों की एक न चली थी।
अंग्रेजी सेनाओं से लड़ते-लड़ते होल्कर नरेश जशवंतराव भागकर भरतपुर आ गए थे। जाट राजा रणजीत सिंह ने उन्हें वचन दिया था कि आपको बचाने के लिए हम सब कुछ कुर्बान कर देंगे। अंग्रेजी सेना के कमांडर इन चीफ लॉर्ड लेक ने भरतपुर के जाट राजा रणजीत सिंह को सूचना दी कि वे जसवंत राव होल्कर को अंग्रेजों के हवाले कर दें। ऐसा नहीं करने पर अंजाम काफी बुरा होगा। यह धमकी जाट राजा के स्वभाव के सर्वथा खिलाफ थी।
जाट राजा अपनी आन-बान और शान के लिए मशहूर रहे हैं। जाट राजा रणजीत सिंह ने भी लॉर्ड लेक को संदेश भेजा। जिसमें उन्होंने कहा कि आप हमारे हौसले को आजमा लें। हमने लडऩा सीखा है, झुकना नहीं। यह बात अंग्रेजी सेना के कमांडर को बुरी लगी और भारी सेना के साथ भरतपुर पर आक्रमण कर दिया।
संधि को भी ठुकराया: युद्ध से विस्मत होकर लार्ड लेक ने भरतपुर संधि का प्रस्ताव भेजा। लेकिन राजा रणजीत सिंह ने अंग्रेजों की यह संधि को ठुकराते हुए युद्ध के लिए ललकारा। अंग्रेजों के सामने जाट सेनाएं निर्भिकता से डटी रहीं। अंग्रेजी सेना तोप से गोले उगलती जा रही थी और वह गोले भरतपुर की मिट्टी के उस किले के पेट में समाते जा रहे थे। तोप के गोलों के घमासान हमले के बाद भी जब भरतपुर का किला ज्यों का त्यों खड़ा रहा तो अंग्रेजी सेना में आश्चर्य और सनसनी फैल गयी।
तोप के गोले धंस जाते थे दीवार में: यह किला यद्यपि इतना विशाल नहीं है, जितना चित्तौड़ का किला। लेकिन फिर भी इस किले को अजेय माना जाता है। इस किले की एक और खास बात यह है कि किले के चारों ओर मिट्टी के गारे की मोटी दीवार है। इसके बाहर पानी से भरी हुई खाई है। यही वजह है कि इस किले पर आक्रमण करना सहज नहीं था। क्योंकि तोप से निकले हुए गोले गारे की दीवार में धंस जाते और उनकी आग शांत हो जाती। ऐसी असंख्य गोले दागने के बावजूद इस किले की पत्थर की दीवार ज्यों की त्यों सुरक्षित बनी रही है। इसलिए दुश्मन इस किले के अंदर कभी प्रवेश नहीं कर सके।
लॉर्ड लेक स्वयं विस्मित होकर इस किले की अद्भुत क्षमता को देखते और आंकते रहे। संधि का संदेश फि र दोहराया गया और राजा रणजीत सिंह ने अंग्रेजी सेना को एक बार फि र ललकार दिया। अंग्रेजों की फौज को लगातार रसद और गोला बारूद आते जा रहे थे और वह अपना आक्रमण निरंतर जारी रखती रही। परन्तु भरतपुर के किले, और जाट सेनाएँ, जो अडिग होकर अंग्रेजों के हमलों को झेलती रही और मुस्कुराती रही। इतिहासकारों का कहना है कि लार्ड लेक के नेतृत्व में अंग्रेजी सेनाओं ने 13 बार इस किले में हमला किया और हमेशा उसे मुँह की खानी पड़ी और अंग्रेजी सेनाओं को वापस लौटना पड़ा।
महाराजा रणजीत सिंह ने होल्कर नरेश को बिदाई दी। होल्कर नरेश ने रुँधे गले से कहा कि होल्कर भरतपुर का सदा कृतज्ञ रहेगा, हमारी यह मित्रता अमर रहेगी और इस मित्रता का चश्मदीद गवाह रहेगा, भरतपुर का ऐतिहासिक किला, जिसमें रक्षा करने वाले 8 भाग हैं और अनेक बुर्ज भी। इस किले के दोनों दरवाजों को जाट महाराज जवाहर सिंह दिल्ली से लाए थे।
भरतपुर के इस दुर्ग का महत्व यहाँ स्थित राजकीय संग्रहालय के कारण बढ़ जाता है। लोहागढ़ के केन्द्र में स्थित इस संग्रहालय में समीपस्थ जगहों और भरतपुर राज्य से संग्रह किये गए पुरातत्व महत्व की वस्तुओं का बहुमूल्य संकलन है। कचहरी कलाँ नाम के विशाल शाही भवन को, जो किसी समय में भरतपुर राज्य का प्रशासनिक कार्यालय था 1944 में संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया था। बाद में दूसरी मंजिल पर स्थित कमरा खास को भी इस संग्रहालय में शामिल कर लिया गया। यहां पर प्राचीन गाँवों नोह, मल्लाह, बरेह, बयाना आदि के कुषाण काल (पहली शताब्दी) से लेकर 19वीं शती तक की मूर्तियाँ तथा मध्यकाल में जाट राजाओं द्वारा प्रयोग किये गए अस्त्रशस्त्र, कलाकृतियाँ, अभिलेख, जीवाश्म स्थानीय शिल्प व कला को प्रदर्शित किया गया है।
इस नगरी में कई प्रसिद्ध मंदिर है, जिसमें गंगा मंदिर, लक्ष्मण मंदिर तथा बिहारीजी का मंदिर अत्यंत लोकप्रिय और ख्यातिप्राप्त है। शहर के बीच में एक बड़ी जामा मस्जिद भी है। ये मंदिर और मस्जिद पूर्ण रूप से लाल पत्थर के बने हैं। इन मंदिरों और मस्जिद के बारे में एक अजीब कहानी प्रचलित है। बड़े-बूढ़े लोगों का कहना है कि भरतपुर रियासत में जब महाराजा किसी व्यक्ति को नौकरी पर रखते थे तो उस व्यक्ति के साथ यह शर्त रखी जाती थी कि हर महीने उसकी तनख्वाह में से 1 पैसा धर्म के खाते काट लिया जाएगा। हर नौकर को यह शर्त मंजूर थी।
रियासत के हर कर्मचारी के वेतन से 1 पैसा हर महीने धर्म के खाते में जमा होता था। इस धर्म के भी दो खाते थे, हिन्दू कर्मचारियों का पैसा हिन्दू धर्म के खाते में जमा होता था और मुस्लिम कर्मचारियों का पैसा इस्लाम धर्म के खाते में इकट्ठा किया जाता था। कर्मचारियों के मासिक कटौती से इन खातों में जो भारी रकम जमा हो गई, उसका उपयोग धार्मिक प्रतिष्ठानों के उपयोग में किया गया। हिन्दुओं के धर्म खाते से लक्ष्मण मंदिर और गंगा मंदिर बनाए गए, जबकि मुसलमानों के धर्म खाते से शहर की बीचों बीच बहुत बड़ी मस्जिद का निर्माण किया गया। भरतपुर के शासकों ने हिन्दू और मुसलमानों की सहयोग और सामंजस्य की भावना को प्रश्रय दिया। धर्म निरपेक्षता के ऐसे उदाहरण बिरले ही होंगे। कभी भरतपुर जाना हो तो मंदिर और मस्जिद को देखना न भूलें, जो पत्थर की वस्तुकला और पच्चीकारी में अद्भुत नमूने हैं।
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