शनिवार, 24 दिसंबर 2016

बादशाह अकबर भी नतमस्तक हो गए थे आराध्य गोविंददेव जी के सामने


 मुगल सल्तनत ने देव मंदिरों को गिराने का जारी किया था शाही फरमान 
जयपुर। सुबह पो फटने के पहले से लेकर रात्रि के द्वितीय प्रहर में पट बंद होने तक हजारों कृतज्ञ श्रद्धालुओं की भीड़, चारों ओर राधे राधे की अनुगूंज और हर प्रहर में गूंजती घंटे घडिय़ालों की मधुर धुन। वृंदावन जैसी धूम मचाने वाला यह अनुपम दृश्य जयपुर में सैकड़ों बरसों से जीवंत होता आ रहा है। जी हां हम बात कर रहे हैं नगर वासियों के आराध्य गोविंददेवजी की।

संभवत कुछ ही लोगों को यह जानकारी होगी कि गोविंददेवजी की शृंगारिक मूर्ति को भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ब्रजनाभ ने बनाया था। और जब उन्हें जयपुर लाया गया तो गोविंददेव जी सबसे पहले आमेर की घाटी के नीचे विराजे और यहां लगभग एक वर्ष तक रहे।
श्रीकृष्ण के प्रपौत्र मूर्तिकार थे, उन्होंने कृष्ण को नहीं देखा था
इतिहासकार और गोविंद के अनन्य भक्त बताते हैं कि श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ब्रजनाभ एक अच्छे मूर्तिकार भी थे। उनकी इच्छा थी कि भगवान श्रीकृष्ण की असली मूरत हमेशा भक्तों के नयनों में बसी रहे। बस इसी विचार को लेकर वे उनका विग्रह बनाने में जुट गए। उन्होंने कभी कृष्ण को नहीं देखा था लेकिन उनकी दादी ने कृष्ण को देखा था, इसलिए सबसे पहले ब्रजनाभ ने जो विग्रह तैयार किया उसे उन्होंने दादी को ले जाकर दिखाया। विग्रह देखकर वे बोलीं कि भगवान के पांव और चरण तो बिलकुल उन जैसे बन गए पर अन्य अवयव कृष्ण से नहीं मिलते। यह विग्रह मदनमोहन के नाम से जाना गया, जो अब करौली में विराजित है। इसके बाद ब्रजनाभ ने दूसरी मूर्ति बनाई जिसमें भगवान का वक्षस्थल और बाहु सही बने। इसे गोपीनाथ का स्वरूप कहा गया। उन्होंने जब तीसरी मूर्ति बनाई तो उसे देखकर ब्रजनाभ की दादी कह उठीं, अहा भगवान का अरविंद नयनों वाला मुखारविंद ठीक ऐसा ही था। यह विग्रह गोविंददेवजी कहलाया।
एक साल तक आमेर की घाटी में विराजे थे गोविंददेव जी
ब्रजभूमि से पधारे गोविंद देव1669 में जब मुगल सल्तनत ने शाही फरमान जारी कर ब्रजभूमि के देव मंदिरों को गिराने का हुक्म दिया तो इस दौरान वहां की सभी प्रधान मूर्तियां सुरक्षा के लिए अन्यत्र ले जाई गईं। माधव गौड़ या गौडिय़ा संप्रदाय के गोविंद देव, गोपीनाथ और मदनमोहन ये तीनों स्वरूप जयपुर आए। इसमें गोविंद देव पहले आमेर की घाटी के नीचे विराजे और जयपुर बनने पर जय निवास की इस बारहदरी में विराजे।

सवाई जयसिंह को सपने में मिली प्रेरणा यह विख्यात मंदिर उस बारहदरी में है जो सूरज महल के नाम से जयनिवास बाग में चंद्रमहल और बादल महल के मध्य बनी थी। किंवदंती है कि सवाई जयसिंह जब यह शहर बसा रहे थे तो सबसे पहले वे इसी बारहदरी में रहने लगे थे। एक बार रात में उन्हें स्वप्न आया कि यह स्थान तो भगवान का है इसलिए इसे छोड़ देना चाहिए। अगले ही दिन जयसिंह चंद्रमहल में रहने लगे और इस स्थान पर आमेर की घाटी के नीचे विराजे गोविंददेवजी पधराए गए।

गौडिय़ा पद्धति से होती है पूजा अर्चना गोविंददेवजी की सेवा पूजा गौडिय़ा वैष्णवों की पद्धति से की जाती है। यहां हर रोज सात झांकियां होती हैं और प्रत्येक झांकी के समय गाए जाने वाले भजन और कीर्तन निर्धारित हैं। कहा जाता है कि गोविंददेवजी की झांकी में दोनों ओर जो दो सखियां खड़ी हैं इनमें एक राधा ठकुरानी की सेवा के लिए सवाई जयसिंह ने चढ़ाई थी। इसके बाद जयपुर के महाराजा प्रतापसिंह की एक सेविका भगवान की पान सेवा किया करती थी। जब उसकी मृत्यु हो गई तो प्रतापसिंह ने उसकी प्रतिमा बनाकर दूसरी सखी चढ़ाई, जिससे इस झांकी की शोभा और सुंदरता में और वृद्धि हो गई।

योद्धा और विद्वान दोनों रहे नतमस्तक गोविंददेव के इस विग्रह के सामने राजा मानसिंह जैसे वीर योद्धा का सिर झुका और अकबर जैसे विद्वान बादशाह ने भी इसका सम्मान किया। माधव गौड़ वैष्णव संप्रदाय की इस सर्वोच्च और शिरोमणि मूर्ति को जयपुर वाले तो अपना इष्ट देव मानते ही हैं, चैतन्य के हजारों अनुयायी बंगाल, बिहार, मणिपुर, असम और देश के विभिन्न भागों से दर्शन के लिए आते हैं। बंगाल के चैतन्य महाप्रभु ने चार सदियों पहले भक्ति भाव और कीर्तन का जो रास्ता सांसारिक लोगों को बताया था, उसका जादू गोविंददेवजी के मंदिर में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। मंगला आरती से लेकर शयन आरती तक,यहां हर रोज लाखों सिर अपने प्रिय नटवर नागर की मोहिनी मूरत के आगे नत मस्तक रहते हैं। जयपुर इसी विभूति के कारण भक्तों के लिए वृंदावन बना हुआ है।

ऐसे पहुंचे गोविंददेवजी जयपुर के जयनिवास बाग जयपुर नगर के इतिहास में एके राय ने गोविंददेवजी की वृंदावन से जयपुर की यात्रा का क्रम इस प्रकार निर्धारित किया है-
1590 से 1667-1670 के बीच वृंदावन के गोविंददेव मंदिर में स्थापित रहे।
1670 से 1714 तक कामा या वृंदावन में ही विग्रह को छिपा कर रखा गया।
1714 से 1715 आमेर के निकट वृंदावन में रहे जिसे अब कनक वृंदावन के नाम से जाना जाता है।
1715 से निरंतर जयनिवास बाग में स्थित
सोर्स पुस्तक- राज दरबार और रनिवास, इंडियन आर्किटे्रक्चर ब्राउन और वृंदावन से प्रकाशित ब्रज के इतिहास का दूसरा भाग अरविंद नयनों वाले विग्रह गोविंद

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