शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

गोवर्धन पर्वत है शापित, दिनोंदिन घट रही ऊंचाई

जयपुर। कहते हैं जहां सत्य है वहीं ईश्वर है। ऐसा नहीं है कि ईश्वर से गलती नहीं होती है। वे भी कभी आवेश में आकर ऐसे कार्य करते हैं जिससे मानव जिंदगी एक अधर में लटक जाती है। आखिरकार आस्था से भरे मानव को ईश्वर के शरण में एक बार फिर जाना पड़ता है। गलती को सुधराने के लिए ईश्वर एक अनोखा ही रास्ता निकालते हैं। ऐसा ही कुछ रहस्यमय है गोवर्धन पर्वत की कहानी। कई पौराणिक मिथक है। कहा जाता है गोवर्धन पर्वत शापित है। यह पर्वत कभी विशाल हुआ करता था लेकिन पुलस्त्य ऋषि के शाप के कारण यह पर्वत अपनी विशलता खो चुका था।  नंद यानी भगवान कृष्ण ने भारी बारिश से लोगों को बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपने कनिष्ठ अंगुली पर उठा लिया था।

गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है। पांच हजार साल पहले यह गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊंचा हुआ करता था। अब शायद 30 मीटर ही रह गया है। पुलस्त्य ऋषि के शाप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी प्रतिदिन कम होता जा रहा है। इसी पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी बाये हाथ के कनिष्ठ अंगुली पर उठा लिया था। श्रीगोवर्धन पर्वत मथुरा से 22 किमी की दूरी पर स्थित है।

पौराणिक मान्यता अनुसार श्रीगिरिराजजी को पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत से ब्रज में लाए थे। दूसरी मान्यता यह भी है कि जब रामसेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमानजी इस पर्वत को उतराखंड से ला रहे थे, लेकिन तभी देववाणी हुई की सेतुबंध का कार्य पूर्ण हो गया है, तो यह सुनकर हनुमानजी इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए।

क्यों उठाया गोवर्धन पर्वत : इस पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी चींटी अंगुली से उठा लिया था। कारण यह था कि मथुरा, गोकुल, वृंदावन आदि के लोगों को वह अति जलवृष्टि से बचाना चाहते थे। नगरवासियों ने इस पर्वत के नीचे इकठ्ठा होकर अपनी जान बचाई। अति जलवृष्टि इंद्र ने कराई थी। लोग इंद्र से डरते थे और डर के मारे सभी इंद्र की पूजा करते थे, तो कृष्ण ने कहा था कि आप डरना छोड़ दे...मैं हूं ना।

परिक्रमा का महत्व: सभी हिंदूजनों के लिए इस पर्वत की परिक्रमा का महत्व है। वल्लभ सम्प्रदाय के वैष्णवमार्गी लोग तो इसकी परिक्रमा अवश्य ही करते हैं क्योंकि वल्लभ संप्रदाय में भगवान कृष्ण के उस स्वरूप की आराधना की जाती है जिसमें उन्होंने बाएं हाथ से गोवर्धन पर्वत उठा रखा है और उनका दायां हाथ कमर पर है। इस पर्वत की परिक्रमा के लिए समूचे विश्व से कृष्णभक्त, वैष्णवजन और वल्लभ संप्रदाय के लोग आते हैं। यह पूरी परिक्रमा 7 कोस अर्थात लगभग 21 किलोमीटर है।

परिक्रमा मार्ग में पडऩे वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, जातिपुरा, मुखार्विद मंदिर, राधाकुंड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, गोविन्द कुंड, पूंछरी का लौठा, दानघाटी इत्यादि हैं। गोवर्धन में सुरभि गाय, ऐरावत हाथी तथा एक शिला पर भगवान कृष्ण के चरण चिह्न हैं।

परिक्रमा की शुरुआत वैष्णवजन जातिपुरा से और सामान्यजन मानसी गंगा से करते हैं और पुन: वहीं पहुंच जाते हैं। पूंछरी का लौठा में दर्शन करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि यहां आने से इस बात की पुष्टि मानी जाती है कि आप यहां परिक्रमा करने आए हैं। यह अर्जी लगाने जैसा है। पूंछरी का लौठा क्षेत्र राजस्थान में आता है।

वैष्णवजन मानते हैं कि गिरिराज पर्वत के ऊपर गोविंदजी का मंदिर है। कहते हैं कि भगवान कृष्ण यहां शयन करते हैं। उक्त मंदिर में उनका शयनकक्ष है। यहीं मंदिर में स्थित गुफा है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह राजस्थान स्थित श्रीनाथद्वारा तक जाती है।

गोवर्धन की परिक्रमा का पौराणिक महत्व है। प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक लाखों भक्त यहां की सप्तकोसी परिक्रमा करते हैं। प्रतिवर्ष गुरु पूर्णिमा पर यहां की परिक्रमा लगाने का विशेष महत्व है। श्रीगिरिराज पर्वत की तलहटी समस्त गौड़ीय सम्प्रदाय, अष्टछाप कवि एवं अनेक वैष्णव रसिक संतों की साधाना स्थली रही है।

अब बात करते हैं पर्वत की स्थिति की। क्या सचमुच ही पिछले पांच हजार वर्ष से यह स्वत: ही रोज एक मुठ्ठी खत्म हो रहा है या कि शहरीकरण और मौसम की मार ने इसे लगभग खत्म कर दिया। आज यह कछुए की पीठ जैसा भर रह गया है।

हालांकि स्थानीय सरकार ने इसके चारों और तारबंदी कर रखी है फिर भी 21 किलोमीटर के अंडाकार इस पर्वत को देखने पर ऐसा लगता है कि मानो बड़े-बड़े पत्‍थरों के बीच भूरी मिट्टी और कुछ घास जबरन भर दी गई हो। छोटी-मोटी झाडिय़ां भी दिखाई देती है।

पर्वत को चारों तरफ से गोवर्धन शहर और कुछ गांवों ने घेर रखा है। गौर से देखने पर पता चलता है कि पूरा शहर ही पर्वत पर बसा है, जिसमें दो हिस्से छूट गए है उसे ही गिर्राज (गिरिराज) पर्वत कहा जाता है। इसके पहले हिस्से में जातिपुरा, मुखार्विद मंदिर, पूंछरी का लौठा प्रमुख स्थान है तो दूसरे हिस्से में राधाकुंड, गोविंद कुंड और मानसी गंगा प्रमुख स्थान है।

बीच में शहर की मुख्य सड़क है उस सड़क पर एक भव्य मंदिर हैं, उस मंदिर में पर्वत की सिल्ला के दर्शन करने के बाद मंदिर के सामने के रास्ते से यात्रा प्रारंभ होती है और पुन: उसी मंदिर के पास आकर उसके पास पीछे के रास्ते से जाकर मानसी गंगा पर यात्रा समाप्त होती है।

मानसी गंगा के थोड़ा आगे चलो तो फिर से शहर की वही मुख्य सड़क दिखाई देती है। कुछ समझ में नहीं आता कि गोवर्धन के दोनों और सड़क है या कि सड़क के दोनों और गोवर्धन? ऐसा लगता है कि सड़क, आबादी और शासन की लापरवाही ने खत्म कर दिया है गोवर्धन पर्वत को।

गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

इस पहाड़ी के गर्भ में छुपे हैं आयुर्वेद के कई रहस्य


जयपुर। संसार में ऐसी बहुत सी जगहें हैं जो अद्‌भूत हैं। और कुछ ऐसी भी जगह हैं जो कई हजारों साल रहस्यपूर्ण बनी हुई हैं। हम अक्सर रहस्यपूर्ण जगह के बारे में बातें करते ही रोमांचित हो जाते हैं। हमारे दिलो-दिमाग में एक नहीं कई तरह के प्रश्न पैदा होने लगते हैं। आज एक खूबसूरत पहाड़ी के बारे में बताने जा रहा है। प्रकृति की गोद में फैला यह पर्वत कोई और नहीं अरवली है। इतिहासकारों की मानें तो अरावली पर्वत शृंखला के पास एक ज्वालामुखी है। लेकिन इस ज्वालामुखी में हजारों साल से कोई विस्फोट नहीं हुआ है। इस ज्वालामुखी को धोसी पहाड़ी के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि इस धोसी पहाड़ी से कई आयुर्वेद के रहस्य जुड़े हुए हैं। आयुर्वेद की सबसे महान खोज च्यवनप्राश को माना जाता है पर शायद ही कोई यह जानता होगा कि च्यवनप्राश जैसी आयुर्वेदिक दवा धोसी पहाड़ी की देन है।
धोसी पहाड़ी एक चमत्कारी पहाड़ी है, आखिर क्यूं कहा जाता इसे चमत्कारी
पहाड़ी में कई आयुर्वेद तत्व: धोसी पहाड़ी जो कहने को तो ज्वालामुखी है पर वास्तविक रुप में अपने भीतर कई आयुर्वेदिक गुणों को समेटे हुए है, जैसे उनमें से एक है च्यवनप्राश. आयुर्वेद की सबसे महान खोज च्यवनप्राश को माना जाता है पर शायद ही कोई यह जानता होगा कि च्यवनप्राश जैसी आयुर्वेदिक दवा धोसी पहाड़ी की देन है. धोसी पहाड़ी हरियाणा और राजस्थान की सीमा पर स्थित है. धोसी पहाड़ी के बारे में वहां के लोगों का कहना है कि धोसी पहाड़ी एक चमत्कारी पहाड़ी है और साथ ही वहां के लोगों का यह भी कहना है कि धोसी पहाड़ी के रहस्य को ना कोई जान पाया है ना जान पाएगा. विशेषज्ञ भी अगर धोसी पहाड़ी का रहस्य और धोसी पहाड़ी के आयुर्वेदिक गुणों के बारे में पता लगाने की कोशिश करें तो सिर्फ उनके हाथ असफलता ही लगेगी.
यह एक रहस्यपूर्ण पहाडी है: धोसी पहाड़ी रहस्यपूर्ण तो है ही पर साथ में धोसी पहाड़ी की बातें अजीबो-गरीब हैं. धोसी पहाड़ी के नीचे एक गांव पड़ता है जिस गांव का नाम धुंसरा गांव है. धुंसरा गांव के लोगों का कहना है कि धोसी पहाड़ी के उपर कई ऋषियों ने तपस्या की है जिस कारण धोसी पहाड़ी में आयुर्वेद के महान तत्व स्थापित हो चुके हैं. लगभग 5100 वर्ष पूर्व पांडव भी अपने अज्ञातवास के दौरान यहां आए थे. आज भी पहाड़ी के एक तरफ ठोस लावा देखा जा सकता है, जो कि लाखों वर्ष पुराना है.
ब्रह्राव्रत रिसर्च फाउंडेशन, जो वैदिक काल के लिखे वेदों की रिसर्च करता है, की रिसर्च यह कहती है कि धोसी पहाड़ी पर बैठकर ही महान वेदों की रचना की गई है. धोसी पहाड़ी ऐसी चमत्कारी पहाड़ी है कि जो भी महान व्यक्ति इस पहाड़ी पर बैठकर जो भी वेद लिखता है यह धोसी पहाड़ी व्यक्ति और वेद के महान तत्व अपने अंदर स्थापित कर लेती है. 46 दुर्लभ जड़ी-बूटियों को मिलाकर पहली बार यहीं च्यवनप्राश का फार्मूला तैयार किया गया था. 'कायाकल्प' के निर्माण के प्रमाण भी यहीं मिलते हैं.
'कायाकल्प' एक ऐसी औषधि थी, जिसे अच्छी त्वचा और स्वास्थ्य के लिए तैयार किया गया था और इस कायाकल्प का निर्माण भी धोसी पहाड़ी पर ही किया गया था. हैरानी वाली बात यह है कि हेमचंद्र विक्रमादित्य राजा को भी धोसी पहाड़ी की महानता का अहसास हो गया था जिस कारण धोसी पहाड़ी के आयुर्वेद तत्वों को सुरक्षित रखने के लिए धोसी पहाड़ी के ऊपर एक किले का निर्माण किया गया. धोसी पहाड़ी का रहस्य आज भी कायम है कि आखिरकार इसमें ऐसा क्या है जो महान वेदों, महान व्यक्तियों, ऋषियों के महान गुण अपने अंदर स्थापित कर लेती है और साथ में यह भी कि जब यह पहाड़ी ज्वालामुखी है तो कभी भी इसमें कोई विस्फोट क्यों नहीं हुआ है.

शनिवार, 24 दिसंबर 2016

बादशाह अकबर भी नतमस्तक हो गए थे आराध्य गोविंददेव जी के सामने


 मुगल सल्तनत ने देव मंदिरों को गिराने का जारी किया था शाही फरमान 
जयपुर। सुबह पो फटने के पहले से लेकर रात्रि के द्वितीय प्रहर में पट बंद होने तक हजारों कृतज्ञ श्रद्धालुओं की भीड़, चारों ओर राधे राधे की अनुगूंज और हर प्रहर में गूंजती घंटे घडिय़ालों की मधुर धुन। वृंदावन जैसी धूम मचाने वाला यह अनुपम दृश्य जयपुर में सैकड़ों बरसों से जीवंत होता आ रहा है। जी हां हम बात कर रहे हैं नगर वासियों के आराध्य गोविंददेवजी की।

संभवत कुछ ही लोगों को यह जानकारी होगी कि गोविंददेवजी की शृंगारिक मूर्ति को भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ब्रजनाभ ने बनाया था। और जब उन्हें जयपुर लाया गया तो गोविंददेव जी सबसे पहले आमेर की घाटी के नीचे विराजे और यहां लगभग एक वर्ष तक रहे।
श्रीकृष्ण के प्रपौत्र मूर्तिकार थे, उन्होंने कृष्ण को नहीं देखा था
इतिहासकार और गोविंद के अनन्य भक्त बताते हैं कि श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ब्रजनाभ एक अच्छे मूर्तिकार भी थे। उनकी इच्छा थी कि भगवान श्रीकृष्ण की असली मूरत हमेशा भक्तों के नयनों में बसी रहे। बस इसी विचार को लेकर वे उनका विग्रह बनाने में जुट गए। उन्होंने कभी कृष्ण को नहीं देखा था लेकिन उनकी दादी ने कृष्ण को देखा था, इसलिए सबसे पहले ब्रजनाभ ने जो विग्रह तैयार किया उसे उन्होंने दादी को ले जाकर दिखाया। विग्रह देखकर वे बोलीं कि भगवान के पांव और चरण तो बिलकुल उन जैसे बन गए पर अन्य अवयव कृष्ण से नहीं मिलते। यह विग्रह मदनमोहन के नाम से जाना गया, जो अब करौली में विराजित है। इसके बाद ब्रजनाभ ने दूसरी मूर्ति बनाई जिसमें भगवान का वक्षस्थल और बाहु सही बने। इसे गोपीनाथ का स्वरूप कहा गया। उन्होंने जब तीसरी मूर्ति बनाई तो उसे देखकर ब्रजनाभ की दादी कह उठीं, अहा भगवान का अरविंद नयनों वाला मुखारविंद ठीक ऐसा ही था। यह विग्रह गोविंददेवजी कहलाया।
एक साल तक आमेर की घाटी में विराजे थे गोविंददेव जी
ब्रजभूमि से पधारे गोविंद देव1669 में जब मुगल सल्तनत ने शाही फरमान जारी कर ब्रजभूमि के देव मंदिरों को गिराने का हुक्म दिया तो इस दौरान वहां की सभी प्रधान मूर्तियां सुरक्षा के लिए अन्यत्र ले जाई गईं। माधव गौड़ या गौडिय़ा संप्रदाय के गोविंद देव, गोपीनाथ और मदनमोहन ये तीनों स्वरूप जयपुर आए। इसमें गोविंद देव पहले आमेर की घाटी के नीचे विराजे और जयपुर बनने पर जय निवास की इस बारहदरी में विराजे।

सवाई जयसिंह को सपने में मिली प्रेरणा यह विख्यात मंदिर उस बारहदरी में है जो सूरज महल के नाम से जयनिवास बाग में चंद्रमहल और बादल महल के मध्य बनी थी। किंवदंती है कि सवाई जयसिंह जब यह शहर बसा रहे थे तो सबसे पहले वे इसी बारहदरी में रहने लगे थे। एक बार रात में उन्हें स्वप्न आया कि यह स्थान तो भगवान का है इसलिए इसे छोड़ देना चाहिए। अगले ही दिन जयसिंह चंद्रमहल में रहने लगे और इस स्थान पर आमेर की घाटी के नीचे विराजे गोविंददेवजी पधराए गए।

गौडिय़ा पद्धति से होती है पूजा अर्चना गोविंददेवजी की सेवा पूजा गौडिय़ा वैष्णवों की पद्धति से की जाती है। यहां हर रोज सात झांकियां होती हैं और प्रत्येक झांकी के समय गाए जाने वाले भजन और कीर्तन निर्धारित हैं। कहा जाता है कि गोविंददेवजी की झांकी में दोनों ओर जो दो सखियां खड़ी हैं इनमें एक राधा ठकुरानी की सेवा के लिए सवाई जयसिंह ने चढ़ाई थी। इसके बाद जयपुर के महाराजा प्रतापसिंह की एक सेविका भगवान की पान सेवा किया करती थी। जब उसकी मृत्यु हो गई तो प्रतापसिंह ने उसकी प्रतिमा बनाकर दूसरी सखी चढ़ाई, जिससे इस झांकी की शोभा और सुंदरता में और वृद्धि हो गई।

योद्धा और विद्वान दोनों रहे नतमस्तक गोविंददेव के इस विग्रह के सामने राजा मानसिंह जैसे वीर योद्धा का सिर झुका और अकबर जैसे विद्वान बादशाह ने भी इसका सम्मान किया। माधव गौड़ वैष्णव संप्रदाय की इस सर्वोच्च और शिरोमणि मूर्ति को जयपुर वाले तो अपना इष्ट देव मानते ही हैं, चैतन्य के हजारों अनुयायी बंगाल, बिहार, मणिपुर, असम और देश के विभिन्न भागों से दर्शन के लिए आते हैं। बंगाल के चैतन्य महाप्रभु ने चार सदियों पहले भक्ति भाव और कीर्तन का जो रास्ता सांसारिक लोगों को बताया था, उसका जादू गोविंददेवजी के मंदिर में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। मंगला आरती से लेकर शयन आरती तक,यहां हर रोज लाखों सिर अपने प्रिय नटवर नागर की मोहिनी मूरत के आगे नत मस्तक रहते हैं। जयपुर इसी विभूति के कारण भक्तों के लिए वृंदावन बना हुआ है।

ऐसे पहुंचे गोविंददेवजी जयपुर के जयनिवास बाग जयपुर नगर के इतिहास में एके राय ने गोविंददेवजी की वृंदावन से जयपुर की यात्रा का क्रम इस प्रकार निर्धारित किया है-
1590 से 1667-1670 के बीच वृंदावन के गोविंददेव मंदिर में स्थापित रहे।
1670 से 1714 तक कामा या वृंदावन में ही विग्रह को छिपा कर रखा गया।
1714 से 1715 आमेर के निकट वृंदावन में रहे जिसे अब कनक वृंदावन के नाम से जाना जाता है।
1715 से निरंतर जयनिवास बाग में स्थित
सोर्स पुस्तक- राज दरबार और रनिवास, इंडियन आर्किटे्रक्चर ब्राउन और वृंदावन से प्रकाशित ब्रज के इतिहास का दूसरा भाग अरविंद नयनों वाले विग्रह गोविंद