गुरुवार, 26 सितंबर 2013

महज 11 साल की उम्र में दुश्मनों के छुड़ा दिए थे छक्के

 राजस्थान वीरों की धरती है। यहां ऐसे शासक हुए जो अपनी राज्य की सीमा तक ही सीमित नहीं रहे। इन्होंने अपनी वीरता का परिचय कद से बढ़ कर दिया। बाहुबली तो थे ही, साथ ही अपनी विवेक और चतुराई से दुश्मनों को धूल चटाने में भी पीछे नहीं रहे। ऐसी ही एक मिसाल पृथ्वीराज चौहान के नाम की भी है। इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो पृथ्वीराज अनगिनत युद्ध में अपनी वीरता के परचम लहरा चुके हैं। इतिहासकारों के अनुसार महज 11 साल की उम्र में पृथ्वीराज चौहान ने विद्रोही नागार्जुन के छक्के छुड़ा दिए थे। उसे बुरी तरह से पराजित ही नहीं बल्कि मौत के घाट उतार दिया था। एक बार फिर दिल्ली और अजमेर रियासत पूरी तरह से महफूज हो चुकी थी। पृथ्वीराज ने अपनी वीरता और साहस का परिचय बचपन में दे दिया था। कहा जाता है कि पृथ्वीराज ने बाल अवस्था में ही शेर से लड़ाई कर उसका जबड़ा फाड़ डाला था। वैसे चौहान तलवारबाजी के शौकीन थे। शायद यही वजह थी कि इतनी कम उम्र में अपने दुश्मनों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।

दिल्ली से शुरू हुआ शासन का सफर: 1177 में पृथ्वीराज दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठे। हालात काफी नाजुक थे। भारत पर बाहरी आक्रमण का बोलवाला था। पृथ्वीराज के इतने कम उम्र में गद्दी पर बैठ जाने पर राजनीतिक खलबली मच गई थी। इस बीच विद्रोही नागार्जुन को पृथ्वीराज के गद्दी पर बैठना गवारा नहीं था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उसने काफी दिनों तक दिल्ली को बाहरी आक्रमण से महफूज रखा था। इसके बावजूद दिल्ली की बागडोर उसकी हाथों से निकल गई। विद्रोह का लावा फूट पड़ा। उसने पृथ्वीराज के खिलाफ आवाज उठा दी। स्थिति को देखते हुए पृथ्वीराज की मां (कर्पूर देवी) ने शासन का बागडोर अपने हाथों में ले ली। ताकि मंत्रियों और अधिकारियों पर नजर रखी जा सके । साथ ही सेना को सुढ्ढ़ किया जा सके।
ऐसा कहा जा सकता है कि पृथ्वीराज को अपनी मां की देखरेख में शासन चलाना पड़ा। लेकिन लगभग 1178 में पृथ्वीराज ने स्वयं सभी कामकाज अपने हाथ में लिया। इतिहासकारों के अनुसार मां के सान्निध्य में ही पृथ्वीराज ने विद्रोही नागार्जुन का दमन किया था। मां के साथ शासन का सफर चलता रहा और दिल्ली से लेकर अजमेर तक एक शक्तिशाली साम्राज्य कायम हो गया। भूभाग काफी विस्तृत हो चुका था। इसके बाद पृथ्वीराज ने अपनी राजधानी दिल्ली का नवनिर्माण किया। इससे पहले यहां पर तोमर नरेश ने एक गढ़ का निर्माण शुरू किया था। जिसे पृथ्वीराज ने विशाल रूप देकर पूरा किया। यह किला पिथौरागढ़ कहलाता है। इस किले का नाम पृथ्वीराज के नाम पर रखा गया है। पृथ्वीराज को "राय पिथौरा" भी कहा जाता है। आज भी दिल्ली के पुराने किले के नाम से जीर्णावस्था में विद्यमान है।

पृथ्वीराज के जन्म स्थल और जन्मदिन को लेकर मतभेद: पृथ्वीराज की जन्मतिथि और जन्मस्थल को लेकर कई विद्वानों में मतभेद बना हुआ है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पृथ्वीराज का जन्म गुजरात में हुआ था। तो दिल्ली और राजस्थान के इतिहासकारों का कहाना है कि पृथ्वीराज का जन्म राजस्थान के अजमेर में हुआ था। तिथि को लेकर भी काफी संशय है। 1100 में दिल्ली में महाराजा अनंगपाल का शासन था। उनकी इकलौती संतान पुत्री कर्पूरी देवी थी। कर्पूरी देवी का विवाह अजमेर के महाराजा सोमेश्वर के साथ हुआ था। अजमेर के राजा सोमेश्वर और रानी कर्पूरी देवी के यहां 1149 में एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जो आगे चलकर इतिहास में महान हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जबकि दूसरे इतिहासकार कुछ और बयां कर रहे हैं। उनके अनुसार पृथ्वीराज 11 वर्ष के थे, तब उनके पिता सोमेश्वर का विक्रम संवत 1234 (1177) में देहांत हो गया था। इस अनुसार 1223 विक्रम संवत 1166 में पृथ्वीराज का जन्म हुआ था। विश्व के अधिकांश विद्वानों ने भी इस तिथि को प्रामाणिक माना है।

गद्दी पर बैठते ही शुरू हुआ विद्रोह: दिल्ली सल्तनत पर हुकूमत करना सहज नहीं था। क्योंकि मुस्लिम और देसी रियासतों का आक्रमण दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा था। गद्दी पर बैठते ही सबसे पहले अपने निकट संबंधी नागार्जुन के विरोध का सामना करना पड़ा। नागार्जुन का दमन करने के बाद पृथ्वीराज ने 1191 में मुस्लिम शासक सुल्तान मोहम्मद शहाबुद्दीन गौरी को हराया। इसे इतिहास में तराइन के युद्ध से जाना जाता है। हालांकि गौरी ने दूसरी बार फिर से आक्रमण किया। इस युद्ध में पृथ्वीराज की हार हुई थी। ऐसा इतिहासकारों का मानना है। इस युद्ध के बाद पृथ्वीराज को गौरी अपने साथ ले गया था। इस बात की पुष्टि राजकवि चन्द्रबदाई ने की है। हालांकि इसकी पुष्टि भारत के इतिहासकार नहीं करते हैं। उनका मानना है कि तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज की मौत हो गई थी।

गुजरात के भीमदेव के साथ युद्ध: पृथ्वीराज ने गद्दी पर बैठते अपने साम्राज्य विस्तार और सैनिक को प्रशिक्षित करने में जुट गए। सबसे पहले साम्राज्य विस्तार का सफर राजस्थान से शुरू हुआ। अजमेर के आस-पास के रियासत पर कब्जा करने के  बाद पृथ्वीराज ने गुजरात की की ओर रुख किया। उस समय गुजरात में चालुक्य वंश का शासन था। वहां के महाराजा भीमदेव बघेला थे। हालांकि युद्ध की पहल चालुक्य वंश की ओर से हुई थी। महाराजा भीमदेव ने पृथ्वीराज के किशोर होने का फायदा उठाना चाह
गुजरात में उस समय चालुक्य वंश के महाराजा भीमदेव बघेला का राज था। उसने पृथ्वीराज के किशोर होने का फायदा उठाना चाहता था। यही विचार कर उसने नागौर पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। पृथ्वीराज किशोर अवश्य था परन्तु उसमें साहस-संयम और निति-निपुणता के भाव कूट-कूट कर भरे हुए थे। जब पृथ्वीराज को पता चला के चालुक्य राजा ने नागौर पर अपना अधिकार करना चाहते है तो उन्होंने भी अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने के लिए कहा। भीमदेव ने ही पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर को युद्ध में हरा कर मृत्यु के घाट उतर दिया था। नौगर के किले के बाहर भीमदेव के पुत्र जगदेव के साथ पृथ्वीराज का भीषण संग्राम हुआ जिसमे अंतत जगदेव की सेना ने पृथ्वीराज की सेना के सामने घुटने टेक दिए। फलस्वरूप जगदेव ने पृथ्वीराज से संधि कर ली और पृथ्वीराज ने उसे जीवन दान दे दिया और उसके साथ वीरतापूर्ण व्यवहार किया। जगदेव के साथ संधि करके उसको अकूत घोड़े, हठी और धन संपदा प्राप्त हुई। आस पास के सभी राज्यों में सभी पृथ्वीराज की वीरता, धीरता और रन कौशल का लोहा मानने लगे। यहीं से पृथ्वीराज चौहान का विजयी अभियान आगे की और बढऩे लगा।


विद्रोही नागार्जुन का अंत: जब महाराज अनंगपाल की मृत्यु हुई उस समय बालक पृथ्वीराज की आयु मात्र 11 वर्ष थी। अनंगपाल का एक निकट सम्बन्धित था विग्रह्राज। विग्रह्राज के पुत्र नागार्जुन को पृथ्वीराज का दिल्लिअधिपति बनाना बिलकुल अच्छा नहीं लगा। उसकी इच्छा अनंगपाल की मृत्यु के बाद स्वयं गद्दी पर बैठने की थी, परन्तु जब अनंगपाल ने अपने जीवित रहते ही पृथ्वीराज को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया तो उसके हृदय में विद्रोह की लहरे मचलने लगी। महाराज की मृत्यु होते ही उसके विद्रोह का लावा फुट पड़ा। उसने सोचा के पृथ्वीराज मात्र ग्यारह वर्ष का बालक है और युद्ध के नाम से ही घबरा जायेगा। नागार्जुन का विचार सत्य से एकदम विपरीत था। पृथ्वीराज बालक तो जरूर था पर उसके साथ उसकी माता कर्पूरी देवी का आशीर्वाद और प्रधानमंत्री एवं सेनाध्यक्ष कमासा का रण कौशल साथ था। विद्रोही नागार्जुन ने शीघ्र ही गुडपुरा (अजमेर) पर चढ़ाई कर दी। गुडपुरा (अजमेर) के सैनिकों ने जल्दी ही नागार्जुन के समक्ष अपने हथियार डाल दिए। अब नागार्जुन का साहस दोगुना हो गया। दिल्ली और अजमेर के विद्रोहियों पर शिकंजा कसने के बाद सेनापति कमासा ने गुडपुरा की और विशाल सेना लेकर प्रस्थान किया। नागार्जुन भी भयभीत हुए बिना अपनी सेना के साथ कमासा से युद्ध करने के लिए मैदान में आ डाटा। दोनों तरफ से सैनिक बड़ी वीरता से लड़े। अंतत: वही जयपुर। राजस्थान वीरों की धरती है। यहां ऐसे शासक हुए जो अपनी राज्य की सीमा तक ही सीमित नहीं रहे। इन्होंने अपनी वीरता का परिचय कद से बढ़ कर दिया। बाहुबली तो थे ही, साथ ही अपनी विवेक और चतुराई से दुश्मनों को धूल चटाने में भी पीछे नहीं रहे। ऐसी ही एक मिसाल पृथ्वीराज चौहान के नाम की भी है। इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो पृथ्वीराज अनगिनत युद्ध में अपनी वीरता के परचम लहरा चुके हैं। इतिहासकारों के अनुसार महज 11 साल की उम्र में पृथ्वीराज चौहान ने विद्रोही नागार्जुन के छक्के छुड़ा दिए थे। उसे बुरी तरह से पराजित ही नहीं बल्कि मौत के घाट उतार दिया था। एक बार फिर दिल्ली और अजमेर रियासत पूरी तरह से महफूज हो चुकी थी। पृथ्वीराज ने अपनी वीरता और साहस का परिचय बचपन में दे दिया था। कहा जाता है कि पृथ्वीराज ने बाल अवस्था में ही शेर से लड़ाई कर उसका जबड़ा फाड़ डाला था। वैसे चौहान तलवारबाजी के शौकीन थे। शायद यही वजह थी कि इतनी कम उम्र में अपने दुश्मनों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।

पृथ्वीराज ने 17 बार किया था गौरी को पराजित:1166 से 1192 तक दिल्ली और अजमेर की हुकूमत पृथ्वीराज चौहान के हाथों में थी। वे चौहान वंश के हिंदू क्षत्रिय राजा थे। जो उत्तरी भारत में एक क्षत्र राज करते थे। किंवदंतियों के अनुसार मोहम्मद
गोरी ने 18 बार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था। जिसमें 17 बार गोरी को पराजित होना पड़ा। हालांकि इतिहासकार युद्धों की संख्या के बारे में तो नहीं बताते लेकिन इतना मानते हैं कि गौरी और पृथ्वीराज में कम से कम दो भीषण युद्ध हुए थे। जिनमें प्रथम में पृथ्वीराज विजयी और दूसरे में पराजित हुआ था। वे दोनों युद्ध थानेश्वर के निकटवर्ती तराइन या तरावड़ी के मैदान में 1191 और 1192 में हुए थे।

पृथ्वीराज की मृत्यु पर इतिहासकारों में मतभेद: इतिहासकारों के अनुसार तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय हुई थी। हालांकि इस युद्ध में पृथ्वीराज के योद्धाओं ने मुसलमानी सेना पर भीषण प्रहार कर अपनी वीरता का परिचय दिया था। लेकिन फिर भी गोरी के सैनिकों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया। युद्ध में पराजित होने के बाद पृथ्वीराज की किस प्रकार मृत्यु हुई। इस विषय में इतिहासकारों के विभिन्न मत मिलते है। कुछ के मतानुसार वह पहिले बंदी बनाकर दिल्ली में रखा गया था और बाद में गोरी के सैनिकों द्वारा मार दिया गया था। कुछ का मत है कि उसे बंदी बनाकर गजनी ले जाया गया था और वहां पर उसकी मृत्यु हुई।

शब्दभेदी बाण से मार गिराया गौरी को 
 चंदबरदाई द्वारा लिखित "पृथ्वीराज रासो" में विस्तार से पृथ्वीराज चौहान के बारे में लिखा गया है। खासतौर पर उनके अंतिम समय के बारे में। जब गौरी उन्हें पकड़कर अपने साथ ले गया और गरम सलाखें दाग कर उनकी आंखे फोड़ दी। अंधे होने के बावजूद पृथ्वीराज एक वीर की मौत मरना चाहते थे। अपने मित्र और राजकवि चंदबरदाई के साथ उन्होंने शब्दभेदी बाण चलाने की पूरी कला पर महारत हासिल की। इसके साथ उन्होंने गौरी से तीरंदाजी कौशल प्रदर्शित करने की अनुमति मांगी। गौरी ने पृथ्वीराज को दरबार में बुलाया। जहां उन्हें कुछ निशानों पर तीर चलाने थे। लेकिन पृथ्वीराज की योजना कुछ और ही थी। वे उन निशानों के बहाने गौरी पर निशाना साधना चाहते थे।

चंदरबरदाई ने दोहे के माध्यम से उन्हें गौरी का स्थान समझाया। जो इस प्रकार है-
"चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण,
ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान।"
इसी शब्दभेदी बाण के द्वारा पृथ्वीराज ने आंकलन करके बाण चला दिया। जिसके फलस्वरूप गौरी का प्राणांत हो गया। चूंकि पृथ्वीराज और चंदरबरदाई दोनों गौरी के सैनिकों से घिरे हुए थे, दुश्मन के हाथों मरने से बेहतर दोनों मित्रों ने एक दूसरे को मारकर वीरगति प्राप्त कर ली।